आलम ~ए ~ मस्ती
आलम ~ए ~ मस्ती
वो ना आई थी बर्बाद होने,
मैं ना आया था आबाद होने,
सुरूर ~ए ~मस्ती दोनो पे ऐसी छाई,
कौन बरबाद ... कौन आबाद ?
फिर हुआ दोनों में ?
ज़ाते - ज़ाते भी वो मुस्कुरा कर गई,
मेरी चढ़ती ज़वानी जवां कर गई,
फिक्र ना थी ज़माने की ओ बेखबर,
फिक्र ज़माने को हुई ये खता कर गई।
रोज़ छींटाकशी लोग करने लगे,
कभी उसकी ज़वानी पे तंज कसने लगे,
वो औरों के दिलों की मेहरबाँ हो गई,
और मेरे दिल से फ़ना हो गई।
उसको भुलाने की कोशिश में मैं ,
बर्बाद - बर्बाद होता गया
मेरे करीब आने की कोशिश में वो,
आबाद - आबाद कईओं की जाँ हो गई।
ये ज़वानी कहाँ कब फिसल जायेगी ?
मस्ती पे ज़ोर कोई चलता नहीं,
मेरी आलम ~ए ~ मस्ती में,
वो सच पूछो तो बिलकुल बर्बाद हो गई।