समर्पण
समर्पण
भले ही रेल की पटरियों सी
है जिंदगी हमारी,
लेकिन हमारे रूह से रूह का 'समर्पण'
तो जन्मों का है।
भले ही हमारा मिलना,
नियति के पृष्ठों पर नहीं लिखा ईश्वर ने
और हमनें भी हमारे बीच की दूरी का मान
बरकरार रखा है आज तक।
एक-दूजे को देखकर ही
तो हम अपना कल सँवारते आए हैं
ये हमारे नसीब की विडंबना ही तो है,
जो हम एक-दूसरे के
आमने-सामने होते हुए भी
कभी एक-दूसरे के नहीं हो सकते।
लेकिन एक बात कहूँ ?
जब रेल के यात्रियों के
मंजिल का रास्ता सीधा नहीं जाता
तो हमारे क्षणिक मिलन के द्वार,
खुल जातें हैं उस वक़्त
और हम उन लम्हों में जी लेते हैं सदियाँ
एक-दूसरे को अंक में भरकर,
वही लम्हें हमारे समर्पण को
परिपूर्ण करता है।
सच कहूँ तो यूँ लगता है
कि ईश्वर को भी हमारे बीच की
इन दूरियों में सिसकती हुई
हमारी 'प्रीति' की सिसकियाँ
सुनाई देती होंगी अकसर,
तभी तो हमारे समर्पण के
द्वार खुल जातें हैं
चाहे वो क्षणिक ही क्यों ना हो।