आखिर उनकी बात चली
आखिर उनकी बात चली
कोशिश की थी शुरू न हो पर,
आखिर उनकी बात चली,
साँसे रोके सुन रही है,
मंद-मंद फिर रात चली।
तकिये कितने भिगो गई है,
याद तुम्हारी निष्ठुर है।
कैसे रोकूँ मैं भला इन्हें,
फिर आँखों से बरसात चली।
इतने लम्बे सफ़र में मैंने,
सोचा नींद जरूरी है,
उसे राह में छोड़ कहीं पर,
हँसत-हँसते रात चली।
बाजी मेरे पक्ष में थी,
वह सोच सोच घबरायी सी।
उसने ऊँगली में लटें फेरकर,
सारे मोहरों की मात चली।
छोटी सी तो ख्वाहिश की थी,
एक ख़ुशी बस मांगी थी।
रब तुझसे यह हो ना पाया,
इतनी क्या आफ़त चली।
ऐसी हालत में तुम हमसे,
हँसने की आस लगाये हो।
जितनी मिली थी उन पर खो दी,
अब तक ना इफ़रात चली।
देखो भोली सहर आ गई
एक उबासी लेती सी।
बात ख़त्म ना हुई अभी तक,
वह भी मेरे साथ चली।