आजीवन दोस्ती
आजीवन दोस्ती
आज का इंसान तो बेजुबान निरीह से, भी गया गुजरा हो गया है।
खा कसमें सप्तपदी की वेदी पे, 7जन्मों के वादे निभाना भूल गया है।
थोड़े से अहम को, स्वार्थ के जाल में लोभ के भार से दब गया है।
ये मूक निरीह बेजुबान, जो साले कुत्ते की गाली से नवाजे जाते है ।
अपनी अंतिम सांसो तक, साथ निभा हक दोस्ती का अदा कर जाते है ।
साथ निभाने को आज समझ स्वार्थ शक की नजरों से देखा जाता है।
रिश्ता आजीवन तभी दौड़ता, निभाना शब्द को निभाना आ जाता है।
आज तो आजीवन दोस्ती बात किस्से कहानी की है होती ।
वरना सड़क पर किसी घर के बुजुर्ग, बाल नारी न रोती ।