आज का समाज!
आज का समाज!
ढूंढ रहा है देश खुद की पहचान,
क्यों अलग है आज हिंदू और मुसलमान?
देशभक्ति के परिभाषा से हैं अनजान,
देशद्रोही होने का सभी दे रहे हैं फरमान।
सामाजिक जिम्मेदारी से भाग रहे हैं दूर,
कर रहे सामाजिक न्याय की बातें भरपूर,
प्रेम और सौहार्द की बातें हुई चूर चूर,
उत्तेजना और डर की मुलाकातें हुई मशहूर।
भगवान को भी धर्म और जाति में बाँटा,
उनके दिखाए मार्ग पे है आज खूब सन्नाटा,
बुद्धिजीवी और न्यायपालिका का साथ है छूटा,
आम आदमी दिनचर्या की बदहाली में है लूटा।
बेरोजगारी से भर रही है हर राज्यों की टोकरी,
कितनों को बैठे बिठाये चाहिए नौकरी,
सभी नेताओं ने आरक्षण की खोली है छतरी,
क्या चल पाएगी भविष्य की गाड़ी छोड़ के ये पटरी?
रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित है आधा हिंदुस्तान,
लेकिन सामाजिक संपर्क माध्यम में ढूंढ रहे हैं सम्मान,
कितनों को गरीबी रेखा के ऊपर होने का है अभिमान,
तो कितने राजनीति का ले रहे है पूर्ण संज्ञान।
दोस्तों, समाज बँट गया है विचारधारा की दीवारों में,
बनी है बांध अमीरी गरीबी की इंसानियत की धाराओं में,
ढूंढ रहा है आज ये समंदर जहाँ सभी का समावेश हो,
खोयी हुयी संस्कृति संग सभी के खुशियों का निवेश हो।
