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Kartavya Upadhyay

Drama

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Kartavya Upadhyay

Drama

आईना

आईना

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आज मैंने आईने में देखा खुद को गौर से।

कुछ नए अदब के साथ में, कुछ नव नवल के तौर से।


उस पर भी कोई जज़ीरा था घना वीरान सा,

उस पार भी काफिर खड़ा मेरी तरह हैरान सा।


उस पार भी कोई शांत था कोई चुप खड़ा कोई मौन था,

उस पार भी उन खुल्ले घावों पर लगा कोई लोन था।


उस पार के बाजार में कोई टूटता दिल था रखा,

उस पार के काफिर ने भी किसी प्रेम स्वाद को था चखा।


एक अजब सी बात दिल-ऐ-आईना की बड़ी,

सर-ऐ-आईना था मैं खड़ा पसे-आईना थी तू बसी।


जज़्बात मेरा आईने के दायरे से फट पड़ा,

लेकर शिला का खंड मैं उस आईने से फिर लड़ा।


फिर उस अज़ब से आईने के टुकड़े-टुकड़े हो गए ,

अवशेष अब तक दिल के थे अब यादों के भी हो गए।







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