आगा़जे - ए - मुहब्बत
आगा़जे - ए - मुहब्बत
आगा़जे़ - ए - मुहब्बत की
तो अंजाम से क्यों डरना
जमाने की झूठी रवायतों से
अब हमें ना है डरना
रस्में- ए - उल्फ़त हम निभाएँ
पर रहे शर्म का पर्दा
महबूब की बाँहों में हो
सुकून का हर लम्हा
नज़रों के तीर से घायल
कराहें उनके अंदाज देख
उनके आघ़रों के जाम ने
भुलाए सभी मैखाने है
खोलकर ये अदना दिल
उनके कदमों में बिछा दिया
उनकी ख्वाहिशों को हमने
अपने जीवन का मकसद बना लिया