आए हैं आज पाहुना मेरे
आए हैं आज पाहुना मेरे
आज रूपहला निकला चाँद मेरे ओसारे ,
घर आए हैं मेरे पहुना सोहे सोलह श्रृंगार मेरे !
नभ का गर्विला चाँद भी पड़ गया धुंधला सा ,
जब मेरे पार्श्व में आकर खड़े हो गए भरतार मेरे !
सज- धज कर जब हम आए उनके समक्ष ,
सौभागी जैसे शुभ पैर पड़े ना अब धरा पर मेरे !
मेरे लिए पर पुरुष उनके सामने फीके हैं सारे ,
कद काठी सुदृढ़ और विभुषित पौरुष से कुंवर मेरे !
मन में है सदा समाई पिय की भोली भाली सी मूरत ,
निःसंकोच होकर कह दिये आज मैंने सारे उद्गार मेरे !
करवाचौथ जिन्हें लगता है एक मिथ्या आडंबर सा ,
उन्होंने अनंत प्रेम का आभास ना किया होगा जैसे मेरे !
©® V. Aaradhyaa