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द्वंद्व युद्ध - 18.2

द्वंद्व युद्ध - 18.2

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रमाशोव की चेतना फिर से घने, अपारदर्शी अंधेरे में लुप्त हो गई। फौरन, जैसे अल्प-विराम के बिना, उसने स्वयँ को लकड़ी के फ़र्श और सभी दीवारों से लगी वेनिस की कुर्सियों से सजे एक बड़े हॉल में देखा। प्रवेश द्वार पर और अन्य तीनों दरवाज़ों पर, जो छोटे छोटे, अंधेरे कमरों में जाते थे, लंबे, पीले फूलों वाले लाल परदे लटक रहे थे। ऐसे ही परदे अंधेरे आँगन में खुलने वाली खिड़कियों पर भी झूल रहे थे। दीवारों पर टँके लैम्प्स जल रहे थे। रोशनी थी, धुँआ था और तीखे यहूदी व्यँजनों की ख़ुशबू आ रही थी, मगर खिड़कियों से कभी कभी गीली हरियाली की, सफ़ेद, महकती अकासिया की और बसंती हवा की ख़ुशबू भी आ जाती थी।

 ऑफ़िसर्स लगभग दस थे। ऐसा लग रहा था कि उनमें से हरेक एक ही साथ गा भी रहा था, और चिल्ला रहा था, और हँस रहा था। रमाशोव , आनन्द और भोलेपन से मुस्कुराते हुए, आश्चर्य से और प्रसन्नता से एक के पास से दूसरे के पास जा रहा था, जैसे बेग-अगामालव को, ल्बोव को, वेत्किन को, एपिफानव को, अर्चाकोव्स्की को, अलिज़ार को, और औरों को पहली बार जान रहा हो। वहीं पर स्टाफ-कैप्टेन लेशेन्का भी था; वह अपनी हमेशा की नम्र और अलसाई मुद्रा से खिड़की के पास बैठा था। मेज़ पर, जैसे मानो अपने आप ही; जैसा कि इस शाम को सभी कुछ हो रहा था; बियर की और चेरी के गाढ़े पेय वाली बोतलें प्रकट हो गईं। रमाशोव किसी के साथ पी रहा था, जाम टकरा रहा था और चुंबन ले रहा था; और यह महसूस कर रहा था कि उसके हाथ और होंठ मीठे और चिपचिपे हो गए हैं।

वहाँ पाँच या छह औरतें थीं। उनमें से एक, देखने में क़रीब चौदह साल की लड़की, जो खुले गले की कमीज़ और बुने हुए गुलाबी पैजामे में थी, बेग अगामालव के घुटनों पर बैठकर उसके शोल्डर स्ट्रैप की लेस से खेल रही थी। दूसरी, लाल रेशमी ब्लाउज़ और काली स्कर्ट में, भूरे बालों वाली, पाउडर पुते चौड़े लाल चेहरे और गोल गोल, काली आँखों तथा चौड़ी भँवों वाली ताक़तवर औरत रमाशोव के पास आई।

 “ऐ, मर्द! तुम इतने उकताए हुए क्यों हो? चलो, कमरे में चलें,” उसने नीची आवाज़ में कहा।

वह तिरछे, फैल कर, पैर पर पैर रखे मेज़ पर बैठ गई। रमाशोव ने देखा, उसकी ड्रेस के नीचे उसकी गोल और मज़बूत जाँघ मुलायमियत से स्पष्ट नज़र आ रही थी। उसके हाथ काँपने लगे और मुँह में ठंडक महसूस हुई। उसने सकुचाते हुए पूछा, “आपका नाम क्या है?”

 “मेरा? माल्वीना।” वह उदासीनता से ऑफ़िसर से मुँह मोड़ कर अपनी टाँगें हिलाने लगी। “सिगरेट तो पिलाओ।”

न जाने कहाँ से दो यहूदी वादक भी आ गए: एक – वायलिन के साथ; दूसरा – ढपली लिए। पोल्का डांस की उबाऊ और बेसुरी धुन पर, ढपली की गहरी गहरी थापों के साथ, अलिज़ार और अर्चाकोव्स्की ने नाचना शुरू किया। वे एक दूसरे के सामने उछलने लगे – कभी एक पैर पर तो कभी दूसरे पर; फैले हुए हाथों की उंगलियों से चुटकियाँ बजाते पीछे हटते – मुड़े हुए घुटनों को दूर फैलाते हुए और बड़ी उंगलियों को बगल के नीचे रखते, और बड़े भद्दे ढंग से नितम्बों को हिलाते; फूहड़पन से अपने धड़ को कभी आगे तो कभी पीछे झुकाते। अचानक बेग-अगामालव कुर्सी से उछल पड़ा और तीखी, ऊँची आवेशपूर्ण आवाज़ में चीखा, “ शैतान के पास जाओ, सिविलियन्स! फ़ौरन दफ़ा हो जाओ! फूटो!”

दरवाज़े में दो सिविलियन्स खड़े थे। कम्पनी के सारे ऑफ़िसर्स उन्हें जानते थे, क्योंकि वे मेस के कार्यक्रमों में आया करते थे। एक था – सरकारी अफ़सर, और दूसरा - अदालत के अफ़सर का भाई, एक छोटा-मोटा ज़मींदार, - दोनों बड़े सलीकेदार नौजवान थे।

सिविलियन कर्मचारी के चेहरे पर मुश्किल से ओढ़ी गई फीकी मुस्कुराहट थी, और वह चापलूसीभरे लहज़े में, मगर बेतकल्लुफ़ी दिखाते हुए बोला, “इजाज़त दीजिए, महाशय।।।आपकी संगत में बैठने की। आप तो मुझे जानते हैं, महाशय।।।मैं तो दूबेत्स्की हूँ, महाशय।।।हम, महाशय, आपके काम में ख़लल नहीं डालेंगे।”

 “ज़्यादा लोग होंगे तो मज़ा ही आएगा,” अदालत के अफ़सर के भाई ने कहा और उसने तनावपूर्ण ठहाका लगाया।

 “आ-ऊ-ट!” बेग-अगामालव चीख़ा। “ मार्च!’

 “महाशय, इन चूहों को बाहर निकालो!” अर्चाकोव्स्की ने ठहाका लगाया।

भगदड़ मच गई। कमरे की हर चीज़ गड्ड-मड्ड हो गई, कराहने लगी, हँसने लगी, पैर पटकने लगी। लैम्पों की अग्नि-जिह्वाएँ धुँआ उगलते हुए ऊपर को उछलने लगीं। रात की ठंडी हवा खिड़कियों से अन्दर घुस आई और कंपकंपाते हुए चेहरों पर साँस छोड़ने लगी। सिविलियनों की, जो अब आँगन में थे; दयनीय, ऊँची और आँसुओं से भीगी आवाज़ें, मरियलपन और दुष्ट भय से चीख रही थीं, “मैं तुझे ऐसे नहीं छोडूँगा! हम कम्पनी-कमांडर से शिकायत करेंगे! मैं गवर्नर को लिखूँगा !”

 “ ऊ-ल्यू-ल्यू-ल्यू-ल्यू! पकड़ो, छू:!” खिड़की से बाहर झुकते हुए वेत्किन पतली आवाज़ में ज़ोर से चिढ़ाने लगा।

रमाशोव को ऐसा लगा कि आज की सारी घटनाएँ एक के बाद एक हो रही हैं – बिना रुके, बिना किसी उद्देश्य के। मानो उसके सामने एक शोर मचाती, भद्दी रील खुलती जा रही है, बदसूरत, फूहड़, भयानक तस्वीरों वाली। वायलिन फिर से एक सुर में भुनभुनाने लगी। ढपली भी गूँजते हुए थरथराने लगी। कोई एक, बिना कोट के, सिर्फ सफ़ेद कमीज़ में, नीचे बैठते बैठते, कमरे के बीचों बीच, हर मिनट नीचे गिरते हुए और हाथों से फ़र्श को थामते हुए नाचने लगा। खुले काले बालों वाली और गर्दन की उभरी हड्डियों वाली दुबली पतली ख़ूबसूरत औरत ने – रमाशोव ने पहले उसे नहीं देखा था – दयनीय लेशेन्का के गले में अपने नंगी बाहें डाल दीं और संगीत और गहमागहमी के बीच ज़ोरदार आवाज़ से भिनभिनाते अंदाज़ में उसके कानों में गाने लगी :

जब हो जाएगा तपेदिक हमेशा के लिए,

पड़ जाओगे पीले, जैसे है ये दीवार।

-चारों ओर तेरे होंगे डॉक्टर।”

बबेतिन्स्की ने पार्टीशन के पार एक अंधेरे कैबिन में ग्लास की बियर फेंकी, और वहाँ से गुस्साई, भारी, उनींदी आवाज़ भुनभुनाई, “ हाँ, महाशय।।।ठीक नहीं होगा। कौन है वहाँ? क्या सूअरपन है?”

 “सुनिए, क्या आप काफ़ी समय से यहाँ हैं?” रमाशोव ने लाल ब्लाउज़ वाली औरत से पूछा और चोरों की

तरह, अपने आप से भी बेख़बर, उसके मज़बूत, गर्म पैर पर हथेली रख दी।


उसने कुछ जवाब दिया जिसे वह सुन नहीं पाया। उसका ध्यान एक वहशी दृश्य ने खींचा। एनसाईन ल्बोव

दोनों में से एक वादक के पीछे भागा और पूरी ताक़त से उसके सिर पर ढपली दे मारी। यहूदी जल्दी जल्दी, समझ में न आने वाली भाषा में चीखा और अपने कोट की लंबी पूँछ को उठाए हुए, डर के मारे पीछे की ओर देखते हुए, एक कोने से दूसरे कोने में भागने लगा। सब हँस रहे थे। अर्चाकोव्स्की हँसी के मारे फर्श पर गिर पड़ा और आँखों में आँसू लिए चारों ओर लोटने लगा। फिर दूसरे वादक की दर्दभरी चीख सुनाई दी। किसी ने उसके हाथों से वायलिन छिन लिया और पूरी ताक़त से उसे ज़मीन पर दे मारा। उसका साऊँड बोर्ड टुकड़े-टुकड़े हो गया, सुरीली चटचटाहट के साथ; जो बड़े विचित्र ढंग से यहूदी की बदहवास चीख में मिल गई। इसके बाद रमाशोव की चेतना पर फिर कुछ अँधेरे क्षण छा गए। और फिर अचानक उसने, मानो तेज़ बुखार और सरसाम की हालत में, देखा, कि सब, जो कमरे में थे, अचानक चिल्लाने लगे, भागने लगे, हाथ हिलाने लगे। बेग-अगामालव के चारों ओर फ़ौरन घेरा बनाकर लोग खड़े हो गए, मगर फ़ौरन ही वे फैल गए, पूरे कमरे में दौड़ने लगे।

 “सब दफ़ा हो जाओ यहाँ से! मुझे किसी की ज़रूरत नहीं है!” बेग-अगामालव तैश में चिल्ला रहा था।

वह दाँत पीस रहा था, अपने सामने की ओर मुक्के मार रहा था और पैर पटक रहा था। उसका चेहरा लाल लाल हो गया, माथे पर रस्सियों की तरह दो नसें फूल गईं, जो नाक की ओर जा रही थीं, सिर भयानकता से, नीचे झुका हुआ था और बाहर निकली पड़ रही आँखों में अनावृत हो चुकी सफ़ेदी ख़ौफ़नाक ढंग से चमक रही थी।

वह जैसे मानवीय शब्द खो चुका था और भयानक कम्पन करती आवाज़ में गरज रहा था; जैसे पागल हो चुका जंगली जानवर हो, “आ-आ-आ-आ-!”

अकस्मात् उसने फुर्ती से शरीर को बाईं ओर झुकाकर म्यान में से तलवार निकाल ली। वह खनखनाई और सनसनाते हुए उसके सिर के ऊपर चमकी। और कमरे में उपस्थित सभी व्यक्ति फौरन दरवाज़ों और खिड़कियों की ओर लपके। औरतें ऐसे चीख़ने लगीं जैसे हिस्टीरिया का दौरा पड़ गया हो। आदमी एक दूसरे को धकेलने लगे। रमाशोव को सीधे दरवाज़े की ओर धकेला गया और कोई व्यक्ति उसके निकट से धक्का मुक्की करते हुए, बेरहमी से, खून निकल आने तक, अपने शोल्डर-स्ट्रैप की बटन की नोक से उसके गाल को चीरता हुआ निकल गया। और तब अचानक आँगन में एक दूसरे को काटते हुए, उत्तेजित, तेज़ तेज़ आवाज़ें चीख़ने लगीं। रमाशोव दरवाज़े में अकेला रह गया। उसका दिल जल्दी जल्दी और मज़बूती से धड़क रहा था, मगर ख़ौफ़ के साथ साथ उसे एक मीठा, झँझावाती, प्रसन्नता से भरा पूर्वाभास भी हो रहा था।

 “काट दूँ-ऊं-ऊं-ऊं-गा!” बेग-अगामालव दाँत पीसते हुए चिल्लाया।

एक आम भय के नज़ारे से उस पर नशा छा गया। उसे मानो दौरा पड़ गया था; पूरी ताक़त से कुछ ही वारों में उसने मेज़ तोड़ दी, फिर तैश में तलवार आईने पर चला दी; और उसके परख़चे इन्द्रधनुषी बारिश के समान सभी ओर बरस गए। दूसरे वार में उसने मेज़ पर रखी सारी बोतलें और ग्लास फोड़ दिए।

मगर अचानक किसी की कर्कश, कृत्रिम-बेशरम चीख़ सुनाई दी, “बेवकूफ़! जंगली!”

यह उसी सीधे बालों और नंगे हाथों वाली महिला की चीख़ थी जिसने अभी अभी लेशेन्का को अपनी बाँहों में भरा था। रमाशोव ने पहले उसे नहीं देखा था। वह फायरप्लेस के पीछे कोने में खड़ी थी, और कूल्हों पर हाथ रखे पूरी की पूरी आगे को झुकते हुए, बिना रुके, मंडी में सब्ज़ी बेचने वालियों जैसी चिल्लाए जा रही थी, “बेवकूफ़! जंगली! ग़ुलाम! यहाँ कोई भी तुमसे नहीं डरता! बेवकूफ़! बेवकूफ़! बेवकूफ़! बेवकूफ़! ।।।”

बेग-अगामालव ने नाक भौंह चढ़ाईं और मानो परेशान होकर अपनी तलवार नीचे कर ली। रमाशोव देख रहा था कि उसका चेहरा कैसे धीरे धीरे फक् पड़ता जा रहा था और आँखों में खूँखार पीली चमक बढ़ती जा रही थी, और साथ ही वह अपने पैर नीचे नीचे मोड़ता जा रहा था, पूरा सिकुड़ रहा था और अपनी गर्दन अन्दर को खींचते हुए, जैसे छलाँग मारने के लिए तत्पर कोई जानवर हो।

 “चुप!” उसने भर्राई आवाज़ में कहा, मानो थूक रहा हो।

 “बेवकूफ़! गुंडा! आर्मी के बच्चे! नहीं रहूँगी चुप! बेवकूफ़! बेवकूफ़!” हर चीख के साथ थरथराती हुई महिला चिल्लाती रही।

रमाशोव को इस बात का एहसास था कि वह भी हर चीख़ के साथ सफ़ेद पड़ता जा रहा है। उसके दिमाग में भारहीनता की, ख़ालीपन की, आज़ादी की परिचित भावना घर करती जा रही थी। भय और प्रसन्नता के विचित्र सम्मिश्रण ने अचानक उसकी आत्मा को ऊपर उठा दिया, जैसे कि हल्का, सुरूरभरा झाग हो। उसने देखा कि बेग-अगामालव औरत पर से नज़रें हटाए बिना, धीरे धीरे सिर पर तलवार उठा रहा है। और अचानक पागलपन भरी वहशियत की, भय की, शरीर की ठंडक की, हँसी की और बहादुरी की एक लपट रमाशोव पर हावी होने लगी। आगे की ओर कूदते हुए उसने बेग की तैशभरी फुत्कार सुनी, “तू चुप नहीं रहेगी? मैं तुझे आख़िरी...”

रमाशोव ने मज़बूती से, ऐसी ताक़त से, जिसकी उसे स्वयँ भी अपने आप से उम्मीद नहीं थी, बेग-अगामालव की कलाई पकड़ ली। कुछ क्षण दोनों अफ़सर बिना पलक झपकाए, बित्ते भर की दूरी से एकटक एक दूसरे की ओर देखते रहे। रमाशोव बेग-अगामालव की तेज़ तेज़, घोड़े की फुत्कार जैसी साँसें सुन रहा था; देख रहा था उसकी आँखों की भयानक सफ़ेदी और तेज़ चमकती पुतलियाँ; और सफ़ेद, करकराते, गतिमान हो रहे जबड़े; मगर उसने महसूस कर लिया था कि इस विद्रूप चेहरे पर वहशियत की आग पल पल बुझती जा रही है। और उसे ख़ौफ़ और बेइंतहा खुशी महसूस हो रही थी, ज़िन्दगी और मौत के बीच यूँ खड़े हुए, और यह जानकर कि इस खेल में उसी की जीत होगी। शायद, वे सभी, जो दूर से इस घटना को देख रहे थे, इसके ख़तरनाक अंजाम को समझ गए थे। खिड़कियों के बाहर आंगन में ख़ामोशी थी, - ऐसी ख़ामोशी कि कहीं, दो क़दमों की दूरी पर अंधेरे में सोलोवेय (नाइटेंगल) अचानक ऊँची, सहज, कँपकँपाती तान छेड़ बैठा।

 “छोड़!” बेग-अगामालव के मुँह से भर्राए हुए बोल फूटे।

 “बेग, तू औरत को नहीं मारेगा,” रमाशोव ने शांति से कहा। “बेग, तू पूरी ज़िन्दगी शर्मिंदा रहेगा। तू नहीं मारेगा।”

बेग-अगामालव की आँखों में पागलपन की आख़िरी चिंगारियाँ बुझ गईं। रमाशोव ने जल्दी से पलकें झपकाईं और गहरी साँस ली, जैसे मूर्च्छा टूटने के बाद लेते हैं। उसका दिल जल्दी जल्दी और बेतरतीबी से धड़क रहा था, जैसा भय के प्रभाव में होता है; और सिर फिर से भारी और गर्म हो गया।

 “छोड़!” बेग-अगामालव फिर चिल्लाया और उसने नफ़रत से अपना हाथ छुड़ा लिया।

अब रमाशोव महसूस कर रहा था कि वह उसका प्रतिरोध करने की हालत में नहीं है, मगर अब वह उससे डर नहीं रहा था, बल्कि अपने साथी के कंधे को हौले से छूते हुए और दया और प्यार से बोल रहा था, “माफ़ कीजिए...मगर बाद में आप खुद ही मुझे धन्यवाद देंगे।”

बेग-अगामालव ने झटके से, खड़खड़ाहट के साथ तलवार म्यान में डाल दी।

 “ठीक है! नर्क में जाए!” वह ग़ुस्से से चीख़ा, मगर अब उसकी आवाज़ में कृत्रिमता और परेशानी का पुट था। “हम तुम बाद में निपट लेंगे। आपको कोई हक़ नहीं है...”

आँगन से इस दृश्य को देखने वाले सभी लोग समझ गए कि ख़तरनाक घड़ी गुज़र चुकी है। कुछ ज़्यादा ही ज़ोर से, तनावपूर्ण ठहाके लगाते वे सब भीतर आए। अब वे सब परिचित, दोस्ताना बेतकल्लुफ़ी से बेग-अगामालव को शांत करने और उसे मनाने में जुट गए। मगर वह अब बुझ चुका था, शक्तिहीन हो चुका था। और अचानक काले पड़ते उसके चेहरे पर थकान का, वितृष्णा का भाव आ गया।

श्लेफेर्षा भागी भागी आई – मोटी औरत, चीकट छातियों वाली, काले, मोटे घेरों वाली आँखों में कठोरता के भाव, बिना बरौनियों वाली। वह कभी एक तो कभी दूसरे अफ़सर पर झपटती, उनकी आस्तीनों और बटनों को पकड़ कर उन्हें झकझोरती और रोनी आवाज़ में चिल्लाती, “और, महाशयों, इस सब का पैसा मुझे कौन देगा : आईने का, मेज़ का, शराब का, और लड़कियों का?”

और फिर कोई एक अनदेखा उसे समझाने के लिए रुक गया। बाकी के अफ़सर झुंड बनाकर बाहर निकल गए। साफ, नज़ाकत भरी मई की रात की हवा हौले हौले और प्रसन्नता से रमाशोव के सीने में प्रवेश कर रही थी और उसके पूरे शरीर को ताज़ा, ख़ुश नुमा कँपकँपाहट से भर रही थी। उसे ऐसा लगा कि उसके दिमाग से आज के नशे के निशान मिट चुके हैं, मानो गीले स्पंज ने स्पर्श कर लिया हो।

बेग-अगामालव उसके निकट आया और उसका हाथ पकड़ लिया।

 “रमाशोव , मेरे साथ बैठिए,” उसने कहा। “ठीक है?”

और जब वे एक दूसरे की बगल में बैठे और रमाशोव ने दाहिनी ओर झुकते हुए देखा कि कैसे घोड़े अव्यवस्थित चाल से अपने चौड़े चौड़े नितंबों को उछालते हुए गाड़ी खींच रहे हैं, पहाड़ी के ऊपर, तो बेग-अगामालव ने टटोलते हुए, उसका हाथ ढूँढा और कस कर, दर्द होने तक और बड़ी देर तक दबाए रखा। उनके बीच इसके अलावा कुछ भी बातचीत नहीं हुई।



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