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NARINDER SHUKLA

Comedy

5.0  

NARINDER SHUKLA

Comedy

गधे ही गधे

गधे ही गधे

14 mins
952


एक चैराहे पर खड़े चार गधे एक दूसरे के सामने अपना - अपना दुखड़ा रो रहे थे। काने गधे ने चितकबरे गधे से कहा - यार, पिंकू, मेरा मालिक मुझे बड़ा पीटता है। दिन भर काम करवाता है चैन से खाने भी नहीं देता। चितकबरे गधे ने रोते हुये कहा - मेरा मालिक भी मुझे चैन से नहीं सोने देता हमेशा गालियां देता रहता है। सामने बस स्टैंड के बाजू वाली गली में एक कजरारे नयनोंवाली सांवली व सुंदर सी गधी देखते हुये मिंकू ने कहा - दोस्तो मेरा भी कुछ यहीं हाल है। चाैथा गधा, जिसका नाम, राजू था, ने अपनी पूंछ से अपनी पीठ सहलाते हुये कहा - यार , हमसे अच्छा तो गली का शेरू है। भौंकता भी है और दाव लगने पर काट भी खाता है। गली की सारी सुंदर औरतें बड़े प्यार से उसे अपने हाथों से खाना खिलाती है।... पार्क के मच्छर तक हमसे अच्छे है। एक बार इंसान को पा जाते है तो बिना काटे नहीं छोड़ते। कुनैन तक की गोली खानी पड़ती है। सात दिनों तक उठना - बैठना भारू हो जाता है। चितकबरे गधे ने राय दी - क्यों न हम अपनी यूनियन बना ले। सब एक साथ रहेंगे तो कोई हमारा बाल भी बांका नहीं कर पायेगा। बस स्टैंड के बाजू वाली गली की सुंदर सलोनी गधी को उसका आशिक ले जा चुका था। मिंकू ने चलते हुये कहा - क्यों नहीं, हम कल इसी जगह मिलेंगे और आगे की रणनीति पर विचार करेंगे। चारों गधों ने एक ही स्वर में मिंकू के प्रस्ताव का समर्थन किया और अपने - अपने घर चले गये। अगले दिन मिंकू की सांवली - सुंदर सलाेनी गधी को भगा ले गया और बाकी गधे गधे रह गये।


जो लोग मौका पड़ने पर अपना काम निकालने के लिये गधे को अपना बाप बना लेने की सलाह देते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिये कि बेटा भी एक न एक दिन बाप बनता है। इस संसार में बहुत कम लोग शादी के बाद कुंवारे रह पाते है।


गधों को मूर्खता का पर्याय समझा जाता है पर, मेरी नज़र में गधा अत्यंत मासूम, संवेदन व सहनशील प्राणी है। हमेशा अपने मालिक की सेवा में लगा रहता है। कभी प्रतिकार नहीं करता। हम अपने आपको शेर, चीता, बाज़, आदि कहलवाना पसंद करते है। लोमड़ी व बगुला भक्त तक कहे जाने में हमें गुरेज़ नहीं लेकिन, गधा कहे जाने पर हम मरने - मारने पर उतारू हो जाता है। एक रामलीला में मंदोदरी के महल के पसर्नल बाडीगार्ड जुआ खेलने के जु़र्म में अचानक पुलिस पकड़ कर ले गई। रामलीला में अफड़ा - तफड़ी मचती देखकर आयोजक ने घर के माली को दारू की एक बोतल का लालच देकर टैंपरेरी बाडीगार्ड नियुक्त कर लिया लेकिन मंच पर पर्दे के पीछे से बार - बार इशारा करने पर भी वह डायलाॅग न बोल पाया। अब रावण, जो स्वयं आयोजक भी था, की स्थिति खिसियानी बिल्ली खंबा नोये जैसी हो गई तो वह तलवार निकालते हुये दहाड़ा - अबे गधे हम पूछते हैं कि मंदोदरी कहां है तो माली तिलमिला गया - हमका गधा कहात हो... कहीं के गर्वनर हो... जाओं नाहीं बताइत... रावण ने फिर आंखे दिखाई। माली से न रहा गया। वहीं से भाला कोंचते हुये गुरराया - आंख दिखावत हीं... आंख दिखावत हीं। ज्यादा बोलबो तो ई अखिया निकाल के हाथ मा पकड़ा देअब। जाओ नाहीं बताइत... कर लियो जो करना है। आयोजक चुपचाप टेंट में चला गया। वकील अक्सर अपने कलाइ्रट को गधा बने रहने की सलाह देते है। उनके अनुसार कानून से बचे रहने का सबसे उत्तम तरीका है।

 

इधर भी गधे है, उधर भी गधे है

जिधर देखता हूं, गधे ही गधे है।


एक काव्य सम्मेलन में एक उभरता हुआ कवि एक मंझे हुये कवि की कविता इस अंदाज़ से सुना रहा था जैसे वह स्वयं कविता का रचयिता हो। उभरता हुआ कवि एक सच्चा कवि था उसने कसम खाई हुई थी कि न तो वह स्वयं की कोई कविता रचेगा और न ही उसे किसी मंच से सुनायेगा। पड़ोसियों के घर में लगी अंगूर की बेल को अपने घर में दो बल्लियां गाड़ कर छवा लेने की कला में उसका कोई सानी नहीं था... वैसे भी हाथ न आने पर अंगूर खट्टे हो जाते है। इस उभरते हुये कवि के काम में इतनी सफाई व पवित्रता थी की कोई उसकी कविता को चुरा नहीं सकता था अलबत्ता कभी - कभी तो मूल कवियों को यह शक हो जाता था कि उक्त कविता उन्होंने लिखी भी है या नहीं। सभा में मूल कवि तालियाॅं बजाते हुये कहते - वाह, क्या खूब कहा है -

इधर भी गधे है, उधर भी गधे है

जिधर देखता हूं, गधे ही गधे है।

भई वाह, कमाल है... इधर भी गधे है, उधर भी गधे है।


मंच के दायीं ओर की चाैथी कुर्सी पर बैठे डाक्टर वर्मा से न रहा गया वहीं से पांव बढ़ाकर लड़गी मारी - अबे गधा किसे कहता है मैं एम.बी.बी.एस. हूं... यू इडियट तेरे जैसे लोगों का मैं रोज़ इलाज़ करता हूॅं। डाक्टर वर्मा अंग्रेजी को हिंदी से अधिक महत्त्व देते थे उनका मानना था कि अंग्रेजी बोलने वाला साहब और बाकी सब उसके मातहत होते है। वह कभी भी किसी को भी गाली दे सकता है। आस - पास बैठे कविता के मर्मज्ञों द्वारा चुप रहने का संकेत देखकर इस बार आवाज़ का वॅाल्यूम कुछ कम करते हुये उन्होंने थोड़ा नरमी से कहा - लगता है आंखों में मोतिया उतर आया है। मेरे क्लिनिक पर मोतिया का शर्तिया इलाज़ कैंप लगा है आ जाना आई विल्ल मेक यू हैप्पी। डाॅक्टर वर्मा एक नया मरीज़ पाकर बेहद खुश थे जब से ननकू आपरेशन कांड केस लोकतत्र के चाैथे स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया द्वारा ब्रेकिंग न्यूज़ के रुप में हर दस मिनट पर जन - मानस के समक्ष उजागर हुआ है तब से डाक्टर साहब को खुद लकवे की शिकायत हो गयी थी। कैंची पकड़ते हुये उनके हाथ कांपने लगे थे। दरअसल पथरी का आपरेशन करते हुये मरीज़ ननकू के पेट में उनकी कैंची रह गई थी और पेट पुनः खोलते हुये वे अपना तौलिया भूल गये थे। बहरहाल, लड़गी इतनी जोर की थी कि एक पल के लिये उभरता हुआ कवि लड़खड़ा गया लेकिन दूसरे ही पल संभलता हुआ फिर बोला -

इधर भी गधे है, उधर भी गधे है

जिधर देखता हूं, गधे ही गधे है।


अबकि मंच के बायीं ओर बैठी मशहूर माॅडल पूनम के बगल में बैठे शहर के मशहूर उद्योगपति, जिनका कालिया रेसीडेंस सोसाइटी के बगल में बहुजन हिताय दीन बंधू वि़द्यालय के साथ लगती दीवार के साथ कायदे से शराब का एक ठेका भी है, दांत किटकिटाते, किंतु गोष्ठी की मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुये उभरते हुए कवि को डांटा - वाॅहट नाॅनसेंस। दायें बैठी महिलाओं को अपनी ओर घूरते हुये देखकर वे मुस्कराते हुये बोले - आई थिंक ही इज़ मोर डंकी। मिस्टर कालिया हैंडसम थे लेकिन शादी अभी नहीं हुई थी। पार्टियों में वे हाट बैचलर माने जाते थे। पिछली पंक्ती में बैठी महिलायें खुश थीं। महिलाओं को गधा नहीं कहा जाता।


एक अधेड़़ माडर्न कवयित्री ने अपनी बिखरी जुल्फ़ों की लटों को कान पर चढ़ाते हुये उभरते हुये कवि की प्रशंसा में तालिया बजाई - वाह क्या खूब कहा... कमाल कर दिया ़वाह गधे ही गधे है। बाजू़ वाली सीट पर बैठी मोहल्ला किट्टी पार्टी की आर्गेनाइज़र स्वीटी ने माडर्न कवयित्री से पूछा - उर्मि क्या सभी मर्द गधे होते है। - उर्मि ने काउंटर प्रश्न किया - क्या तेरा लकी गधा नहीं है। स्वीटी ने अपने शाइनिंग लाल होंठ सिकोड़ते हुये कहा - हूं है तो... पर थोड़ा - थोड़ा। कभी - कभी दुलत्ती मार देता है कहता है सर्दी में ठंडे पानी से मैं बरतन साफ नहीं करुंगा। किचन में हीटर लगवाओ। पास बैठी कांता ने कहा - मेरा पति घोड़ा है। सरपट भागता है। वह स्वीटी से आगे निकल जाना चाहती थी। पतियों की इस रेस में अमेरिका रिटर्न, हाल में ही मिसिज़ बनी डेज़ी ने कहा - माई हसबेंड इज़ माई लिटिल पपी यू नो आलॅवेज़ मेरे पीछे - पीछे घूमता है। माई लिटिल बेबी। आजकल पति कब बेबी हो जाये और बेबी कब कुत्ता हो जाये कहा नहीं जा सकता। खैर, प्यार में सब कुछ जायज़ है।


अपनी प्रशंसा सुनकर उभरता हुआ कवि और जोर से रेंका - जवानी का आलम गधों के लिये है। अपना सब कुछ लुटता देखकर पास बैठे सत्तर साल के काने काका ने अपने जबड़ों में दांत खोंसते हुये कहा - भैया... हमहू जवान है। लड़ाय के देख लियो  नचा के देख लियो... सुबह - शाम दिन में दो बार दंड पेलते है... आजकल के इन मरियल छोकरों की तरह नहीं कि दस कदम पैदल चले नहीं कि मिरगी आने लगी। उभरते हुये कवि को भरी जवानी में बुढ़ापा दिखाई देने लगा। उसने सिर घुमाकर एक पल काने काका की ओर देखा और दूसरे ही पल सिर झटक कर आगे बढ गया - तू  पिलाये जा साकी तू पिलाये जा डटके मटके के मटके... मटके के मटके...। सामने बैठे सरदार जी से न रहा गया। जेब से पउआ निकालकर पीते हुये मंच पर चढ़ गये और उभरते हुये कवि से माइक छीन कर गाने लगे - पिलाये जा डटके मटके के मटके. मटके के मटके..।


इससे पहले कि आयोजक उन्हें मंच से उतारते उन्होंने उभरते हुये कवि के कान पकड़कर उसके गालों पर ताबड़ तोड़ चार - पांच चुम्मे रसीद कर दिये - ओह मुंडिया कमाल कर छडिया... जे मटिकियां च विस्की दी थां दारु पा लैंदा तां होर नज़ारे आणे सी। मंच पर बैठे चीफ गैस्ट ने माथे पर हाथ रखते हुये कहा - वहट रबिश। गदा कहीं का। इतना भी नहीं जानता कि विस्की ही दारु है। मैं और डाक्टर प्रोफेसर जे. पी. चोपड़ा मंच के सामने बीचों - बीच सबसे पीछे बैठे थे। लिहाज़ा उभरते हुए कवि के रेडार में नहीं आ रहे थे। वैसे भी मंच पर चढ़ा कवि इधर - उधर ही देखता है। मैंने अपने साथ बैठे डाॅक्टर प्रोफेसर जे. पी. चोपड़ा के कान में कहा - डाक्टर प्रोफेसर चोपड़ा जी कितना कच्चा गधा है दो ही घुँट में झूम रहा है। यहां पूरी बोतल पीने पर भी गले में तरावट नहीं आती। डाक्टर प्रोफेसर चोपड़ा हिंदी के रिटायर्ड प्रोफेसर थे। हिंदी के डाॅक्टर ही सचमुच के डाक्टर होते है। यह उन्हें पता था। डाक्टर बनने के बाद, शुरुआती दिनों में वे बड़ी शान से अपने नाम के आगे डाक्टर लगाते थे और अगर कोई परिचित उन्हें डाॅक्टर न कहता तो वे उससे सदा के लिये संबंध विच्छेद कर लेते थे। लेकिन प्रोफेसर बनने के बाद मामाला थोड़ा पेचिदा हो गया। अब उन्हे यह समझ नहीं आ रहा था कि वे अपने आप को डाॅक्टर कहे या प्रोफेसर। इसी उधेड़ - बुन में वे रिटायर हो गये। सारी उमर वे हिंदी के शिक्षक रहे लेकिन राष्ट्र भाषा घोषित होने के लगभग 64 साल के बाद भी जिस प्रकार लोग आज भी हिंदी को अछूत समझते हैं उसी प्रकार पड़ोसियों व सगे - संबधियों द्वारा हीन समझे जाने के कारण उन्होने रिटायर होने के बाद अपने घर के बाहर मुगल सम्राट शहाजहां की तरह संगमरमर के पत्थर पर खुदवा लिया डाॅक्टर प्रोफेसर जे. पी. चोपड़ा लेकिन उनकी बीवी मुमताज न होकर ललिता निकली। वह आयकर विभाग में सुपरीटेंडेंट थी और सुपरीटेंडेंटी के सारे गुर जानती थी इसलिये असैसी के आते ही वे डाॅक्टर साहब को तरकारी लाने बाज़ार भेज देती थी। डाॅक्टर साहब को तरकारी लाते - लाते आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था ओर वे बातों ही बातों में डाॅक्टर चोपड़ा से डाॅक्टर प्रोफेसर जे. पी. चोेपड़ा हो गये। अब पहले की तरह कोई उन्हें केवल डाॅक्टर कहता तो वे आजकल की प्रेमिकाओं की तरह ब्रेकअप के लिये धमकी देने लगते। वे चाहते थे कि लोग उन्हें डाॅक्टर प्रोफेसर कहें ताकि वे नील अर्मास्ट्रांग हो जायें जे. पी. से उन्हें इतना लगाव नहीं था।


खैर, इससे पहले कि वे कुछ जवाब दे ताे उनका मोबाइल बज उठा। आजकल हम पतलून के बटन बंद करना बेशक भूल जायें लेकिन मोबाइल हाथ में लेना नहीं भूलते जमाना प्रगतिशील है। हम सब वी. आई.पी. हो चले है। सोते - जागते, उठते - बैठते हमें कोई न कोई काम हो सकता है। डाॅक्टर प्रोफेसर चोपड़ा ने फोन पर हाथ रखते हुये मुस्कराते हुये कहा - माफ करना ज़रा वाइफ का फोन है। मैंने अपना मुंह दूसरी ओर घुमा लिया लेकिन जहां किसी दूसरे की वाइफ का मामला हो मेरे कानों व आखों की कपैस्टी बढ़ जाती है।डाॅक्टर प्रोफेसर चोपड़ा ने मोबाइल कान पर लगाते हुये कहा - हलो कि पये करदे हो। उधर से आवाज़ आई - मेरी जूती कित्थे रखी है। तुहांनू किनी बारी किहा है दस के जाया करो। तुहाडे कन्न ते जूं तक नहीं रेंगदी। खसमां नूं खाणियां... तुहाडा मैं की करां। डाॅक्टर प्रोफेसर चोपड़ा ने सहमते हुये बड़ प्यार से कहा - डार्लिंग पई कहिंदे हो। मैं कल ही तुहाडी जुत्ती लिया दिती सी। पलंग दे निच्चे देखों सां। उधर से आवाज़ आई - खसमां नूं खाणियां दृ राशन लियाए हो? डाॅक्टर प्रोफेसर चोपड़ा ने कहा - परची मेरी जेब च है। आंदे होये लिआवांगा। तू एवें ही औखी होई जांदी है। मिसरी पा मुह च...। उन्होने फोन काट दिया।


मैंने पूछा - प्रोफेसर साहब , भाभी जी क्या कह रहीं थी। वे बोले - कुछ नहीं, हाल - चाल पूछ रहीं थी। सुबह से ही खांसी है। मैंने मन में बिना किसी श्रद्धा के कहा - मुझे गधा समझ रहा है। बच्चू मैं तेरा बाप हूं। प्रकट में मुस्कराते हुये कहा - क्यों , आपको क्या हुआ? वे जबरदस्ती खांसते हुये बोले - सुबह से ही खांसी है। मैंने कहा - चलो आपकी बारी आने वाली है। उन्होंने कविता निकालने के लिये जेब टटोली लेकिन कोट की जेबों से उनकी उंगलियां बाहर आ गई। मैंने कहा - प्रोफेसर साहब, पतलून की जेब देख लो। शायद, वहां रखी हो । उन्होंने पतलून की जेब में हाथ डाला। राशन की पर्ची निकली लेकिन कविता नहीं निकली। वे बोले - लगता है वाइफ ने कागज़ बदल लिया है। डाॅक्टर प्रोफेसर चोपड़ा कविता ढूंढ़ ही रहे थे कि मोबाइल फिर बज उठा। मैंने कहा - प्रोफेसर साहब, भाभी जी ने फिर याद किया है। कमाल है इस उम्र में भी इतना ख्याल रखती है। डाॅक्टर प्रोफेसर चोपड़ा ने मोबाइल कान पर लगाते हुये कहा - हलो, उधर से आवाज़ आई - तुसी कित्थे हो?


वे बोले - डाॅक्टर कोल हां... खांसी वद गई है। दवाई लै रिहां हां। मैं मुस्कराया। उन्होंने फोन पर हाथ रख कर आंख मारते हुये कहा - कहना पड़ता है। बहुत प्यार करती है न! ज़रा सी बीमारी देखकर घबरा जाती है। उधर से वाइफ की आवाज़ आई - सारा दिन दवाइयां खांदे रिहा करो। खसमां नूं खाणियां... पता नहीं किहड़ियां - किहड़ियां बिमारियां लगीयां होइंया ने। तूसी कद तक आणा है। मैं बालां नूं मेंहदी लाई होई है। घर दा सारा कम्म पिया है। सफाई वाली नूं वी अज ही मरणा सी।. तुसी सुणदे हो... आंदे होए कल्लू हलवाई दी दुकान तो अददा किल्लो गुलाब जामुन वी लैंदे आयों... मुंह सुकदा पिया है। जल्दी आओ... खसमां नूं खाणियां... खोते वांग इदर - उदर घुम्मी जांदे हो।


इधर प्रोफेसर साहब बुदबुदाये - मैंनू खोता समजदी है... न... मैं खोता हां...। मैंने मन में कहा - मुझे तो रत्ती भर भी संदेह नहीं है। प्रकट में कहा - प्रोफेसर साहब, भाभी जी क्या कह रहीं थी। प्रोफेसर साहब फिर बुदबुदाये - मैंनू खोता समझ रही है। मैं सारे घर दा ठेका लिता होया है। सारा दिन खोतियां वांग कम्म करदा रवा... हूं... जा नहीं करदा मै। मैंने कहा - क्या बात है प्रोफेसर साहब, अपने आप से ही बातें कर रहे है भाभी जी ठीक तो है! वे नींद से जाग गये थे - कुछ नहीं... तुम्हारी भाभी सीढ़ियों से गिर गयी है... अभी घर जाना होगा। मैंने कहा - ज्यादा चोट तो नहीं लगी। उन्होंने उठते हुये कहा - अरे नहीं... घर चल कर देखता हूँ। मैंने चुटकी ली - उधर, कल्लू हलवाई की दुकान की ओर से जाना शार्टकट है जल्दी पहुंचोगे। वे चले गये। इधर उभरते हुये कवि की कविता पर सभा में उपस्थित सभी विद्वानों ने वैल्डन गधे कह कर उभरते हुये कवि को प्रसिद्ध होने का अवसर दिया और मैं सोचने लगा सरकार महंगाई के डोज़ पर डोज़ दिये जाती है। आज हम आपसी रंजिश में कभी जमीन के एक टुकड़े के लिये तो कभी बाप - दादाओं की संपत्ती के बंटवारे के नाम पर अपने ही भाइयों का कत्ल कर रहे है। कहीं होली के नाम पर सैकड़ों लीटर पानी बहाया जा रहा है। कहीं पानी के अभाव में लोग गंदे नालों का पानी पीने के लिये मजबूर है। कहीं गंदे खाने के रूप में बच्चों को बीमारियां परोसी जा रही है। कहीं अंधविश्वास के चलते औरतें ठगी जा रही है। कहीं सीमेंट में अधिक रेत मिलाने से सरकारी इमारतें गिर रही है। नव - निर्मित पुल टूट रहे है।


कहीं लोग पाई - पाई को मोहताज़ है तो कहीं विदेशाें में अकाउंट खुलवाये जा रहे है। कहीं लूटखोरी हैं कही सूदखोरी है। कहीं ट्रॅफिक नियमों को मनवाने के लिये बिना हैल्मैट के छात्रों का वायरलैस मार कर सिर फोड़ा जा रहा है। हम पर कभी आलू - प्याज़ टमाटर लाद दिया जाता है। हर महीने डीज़ल - पैट्रोल के दाम बढ़ाकर वाहन होते हुये भी, खाली सिलेंडर लाद कर चरने पर पर मज़बूर कर दिया जाता है। हम सब कुछ सहते हुये भी हर पांच साल के बाद मालिक के रूप में उन्हें ही चुनते है... हम सुबह न्यूज़ पढ़ते है और शाम को बीवी के साथ फिल्म देखने चल देते है। कहीं कोई संवेदना नहीं... कोई प्रतिकार नहीं। क्या हम असली गधे नहीं है... और अचानक... एक झन्नाटेदार झापड़ के साथ सुनाई पड़ा - ... इडियट ...गधा कहीं का। मैंने देखा... दरअसल... भावनावश... मेरे पैर अगली सीट पर बैठी एक नई हिन्दी की कवयित्री से उलझ गये थे।


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