द्रौपदी कर्ण संवाद
द्रौपदी कर्ण संवाद
द्रौपदी के चीरहरण का कुत्सित प्रयास असफल रहा, अपमान और क्रोध की अग्नि में जलती द्रोपदी के श्राप से भयभीत कुरु राज्य सभा थर-थर कॉंप उठी। राजमाता गांधारी के रुदन के समक्ष द्रोपदी का क्रोध कुछ धीमा पड़ा और वो सर झुकाए खड़े अपने पाँचो पतियों के साथ १२ वर्ष के वनवास के लिए निकल पड़ी। जाने से पूर्व उसने कायर कुरु राजकुमार दुर्योधन, दुशासन और सूत पुत्र कर्ण की और देखा। दुर्योधन और दुशासन के चेहरों में विजयी मुस्कान थी परन्तु सूतपुत्र कर्ण का सिर झुका हुआ था।
वनवास का एक माह गुजर चुका है परन्तु क्रोध और अपमान की ज्वाला में जलती द्रोपदी के अश्रु निरंतर बहते रहते है। पांडव भोजन की व्यवस्था हेतु कहीं दूर वन में निकल चुके है। द्रोपदी भोजन बनाने के पानी की गागर लिए संकरी पग डण्डी पर चलते हुए चौड़े मार्ग पर निकल आई तो सामने से आ रहे एक रथ को देख कर चौक पड़ी, परन्तु वो अपनी सामान्य चाल से चलती रही।
आने वाला रथ उसके समक्ष आकर रुक गया और रथ सवार रथ से उतर कर जब उसके समक्ष आया तो द्रोपदी क्रोध से भर उठी क्योंकि रथ सवार वो सूत पुत्र कर्ण था।
"प्रणाम देवी।" कर्ण द्रौपदी के समक्ष झुक कर बोला।
"मुझे एक सूत पुत्र का प्रणाम स्वीकार नहीं है, तू इस वन में क्यों आया है, क्या तुझे अपने प्राणों का भय नहीं है? मेरे पति तुझे देखते ही मार डालेंगे।" द्रौपदी क्रोधित स्वर में अपने मार्ग पर आगे बढ़ते हुए बोली। उसे मार्ग पर खड़े होकर उस सूत पुत्र से किसी प्रकार का वार्तालाप स्वीकार नहीं था।
"देवी मैं किसी प्रकार का युद्ध करने नहीं आया हूँ मैं तो एक नारी के प्रति बोले गए अपने अपशब्दों से शर्मिंदा हूँ और आपसे क्षमा मांगने इस वन में आया हूँ।" कर्ण के शब्दों में पश्चाताप था।
"मुर्ख है तू, क्या तुझे ज्ञात नहीं है कि सबसे गंभीर घाव तो शब्दों के ही होते है, मैं तेरे शब्दों से घायल हूँ, सूत पुत्र तू क्षमा के योग्य नहीं है।" बिना कर्ण की और देखे द्रौपदी अपने मार्ग पर आगे बढ़ती रही।
"देवी मैं पश्चाताप की अग्नि में जल रहा हूँ, जिस जिह्वा ने आपको अपशब्द कहे है उसे काट कर आपके चरणों में रख देना चाहता हूँ......" कर्ण विकल स्वर में बोला।
"मुझे वेश्या कहने वाले पापी मुझे तेरी जिह्वा की आवश्यकता नहीं है, मुझे तेरे प्राणों की आवश्यकता है, काट अपना शीश और रख दे इस मार्ग पर ताकि मैं उसे ठोकर मार कर इस मार्ग से परे कर सकूँ, तुझ सूत पुत्र का रक्त और शीश इस मार्ग को अपवित्र ही करेगा।" द्रौपदी ने एक पल रुक कर कहा और पुनः अपने मार्ग पर आगे बढ़ चली।
"आपका कथन सत्य है मेरे द्वारा कृत अपराध का एकमात्र दंड मृत्युदंड ही है, परन्तु मैं अपने प्राण युवराज दुर्योधन को अर्पित कर चुका हूँ, इसलिए अब इन प्राणों पर मेरा कोई अधिकार नहीं है अन्यथा अब तक मेरा कटा शीश इस धरा पर पड़ा होता।" कर्ण शांत शब्दों में बोला।
"सूत पुत्र कर्ण तू कुलीन लोगों में रहकर उनके कायरता पूर्ण शब्द किन्तु, परन्तु, अन्यथा भी बोलने सीख गया है, ये क्षमा मांगने का स्वांग अब बंद कर और यही ठहर जा। मैं तुझे क्षमा नहीं करूँगी, यदि युद्ध हुआ तो मेरा पति अर्जुन तेरा शीश काटकर इस धरा पर गिरा देगा और यदि युद्ध न हुआ तो तेरा तो मैं जानती नहीं लेकिन एक दिन मैं क्रोध और अपमान में जलकर मर जाऊंगी।" द्रौपदी क्रोधित स्वर में बोली और मार्ग में हतप्रद कर्ण को खड़ा छोड़कर अपने मार्ग पर आगे बढ़ गई।
(पूर्णतः काल्पनिक)