मैं, आदिवासी महिला राष्ट्रपति
मैं, आदिवासी महिला राष्ट्रपति
(यह कहानी आज के घटनाक्रम पर आधारित होते हुए भी पूर्णतः मनगढ़ंत है। पाठकों से अनुरोध है कि इस कहानी में लिए गए प्रसंगों से वे प्रेरणा तो ग्रहण करें किंतु इसके सत्य-असत्य होने की परख यथार्थ बातों से तुलना करते हुए कृपया नहीं करें।)
मुझे झारखंड के राज्यपाल पद को सुशोभित करने के लिए चुना गया था। मैं तब स्वयं को इस योग्य नहीं मानती थी। मुझे यह अवसर दिया गया, मुझे इस योग्य माना गया था इससे मैं कृतज्ञ अनुभव करती रही थी। छह वर्ष राज्यपाल पद को उसकी गरिमा सहित निभा लेने से मुझमें आत्मविश्वास बढ़ गया था। मैंने यह अनुभव किया था कि यदि यह अवसर मुझे नहीं मिलता तो मैं कभी अपने को इस योग्य नहीं मान पाती।
मैंने निष्कर्ष यह निकाला था कि सुयोग से जिसे अवसर मिलता है, दायित्व निभा लेने पर वही सफल बताया जाता है और उसे ही चर्चा मिलती है। कहा जाने लगता है कि उसने बड़ा काम किया है। और अगर सुयोग न बने, अवसर ही नहीं मिले तो योग्य व्यक्ति को भी कोई सुयोग्य नहीं मान पाता है।
मुझे यह विश्वास हुआ था कि अभी मेरी आयु कम ही है, मैं सफल रही थी इसलिए आगे भी मुझे कुछ और राज्यों का राज्यपाल का दायित्व दिया जाता रहेगा। तब मुझे मानसिक रूप से धक्का लगा था, जब झारखंड में अन्य व्यक्ति को राज्यपाल प्रभार सौंप दिए जाने पर, मुझे अन्य किसी राज्य के लिए ऐसी जिम्मेदारी नहीं दी गई थी।
कुछ दिन लगे थे, मैंने अपने को इस मानसिक आघात से उबार लिया था। मैं अपने राज्यपाल होने के पूर्व के समय की सोच रही थी। मुझे स्मरण आया था कि जब तक मैं राज्यपाल नहीं बनाई गई थी तब तक मैं स्वयं को इस योग्य ही कब मानती थी। मैं स्वभाव से कृतघ्न कभी नहीं थी। मैंने संतोष कर लिया था, जो मुझे मिल चुका था, वही मेरे जैसी आदिवासी, साधारण महिला के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी। मैंने संकल्प लिया था मुझे इतना योग्य मानने एवं बनाने के लिए मुझे बनाने वाले एवं अपने भारत देश का आभारी होना चाहिए।
मैं वापस सादगी से जीवन यापन करने लगी थी। मैं नित दिन ही संथालियों के अपने आराध्य पीठ जाहिरा, पूर्णन्देश्वर शिव मंदिर, जगन्नाथ मंदिर एवं हनुमान मंदिर में कहीं पर पूजा, अर्चना एवं भक्ति करते हुए प्रसन्न रहने लगी थी। मैं अपनी साधना में शिव मंदिर के छोटे बड़े कार्य करते हुए भी प्रसन्न रहती थी। मंदिर में झाड़ू लगाते हुए मैं इस अहंकार से मुक्त रहती थी कि मैं वर्षों तक राज्यपाल पद पर कार्यरत रही थी। मैं सोचती थी कि मैं फिर राज्यपाल या इससे भी बड़ी कुछ हो जाऊँ तब भी मैं अपने इष्ट अपने भगवान के सामने कुछ भी नहीं हूँ। मैं हमेशा उनकी पुजारिन ही रहने वाली हूँ।
वास्तव में मैं वर्ष 2009 से प्रजापिता ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय से जुड़ी हुई थी। समय समय पर वहाँ प्रार्थना एवं ब्रह्मकुमारी बहनों के प्रवचन सुनने एवं वहाँ के साहित्य पढ़ने से मुझमें पहले से भी अधिक सरलता एवं सादगी आ गई थी। यह सरलता एवं सादगी मुझे अच्छे लगते थे एवं इससे मैं बिना अपने पर आडंबर लादे हल्के मन एवं आनंद का जीवन बिता रही थी। मैंने बचपन से ही मांसाहार लिया हुआ था अब मैं शाकाहारी हो गई थी। मुझे लग रहा था कि मेरा शेष जीवन अब इन्हीं दिनचर्याओं में आनंदपूर्वक बीत जाएगा। ऐसे जीवन में, मुझे किसी प्रकार की कोई कमी नहीं लगती थी।
मेरे राज्यपाल नहीं रह जाने के लगभग 11 महीने बाद एक दिन अचानक मुझे एक कॉल आया था। इसमें मुझे बताया गया कि हमारे प्रधानमंत्री जी, मुझसे बात करना चाहते हैं।
मैंने उनके सूचित किए गए सुविधा के समय में, अपने को सब बातों से फ्री किया था। फिर जब प्रधानमंत्री जी ने कॉल पर बात की तब उन्होंने मुझे चौंका दिया था। उन्होंने पूछा था -
आदरणीया अगर आपको, अगले राष्ट्रपति के लिए प्रत्याशी बनाया जाए तो आपको कोई परेशानी तो नहीं होगी?
इसे सुनकर कुछ मिनट मैं आश्चर्य से भरी विचारों में उलझी रही थी। मैं चुप ही थी तब प्रधानमंत्री जी ने पूछा - मैंने जो कहा है, आपने वह सुना तो है, ना?
क्या कहूँ, मुझे कुछ नहीं समझ आ रहा था। अंततः चुप्पी त्याग कर मैंने उत्तर देने के स्थान पर उनसे प्रश्न ही पूछ लिया था - प्रधानमंत्री जी, क्या आप जातीय समीकरण की दृष्टि से, मुझे इस शीर्ष पद के लिए योग्य मान रहे हैं?
प्रधानमंत्री जी ने हँसकर पूछा - आप ऐसा क्यों सोच रहीं हैं?
मैंने कहा - मैं समझती हूँ मेरी जितनी योग्यता वाले, भारत में करोड़ों नागरिक हैं। उन अनेकों एवं मुझसे अधिक योग्य व्यक्तियों में से, राष्ट्रपति पद के लिए मेरे नाम पर सरकार का विचार किया जाना, मेरे मन में ऐसा प्रश्न उत्पन्न कर रहा है।
प्रधानमंत्री जी ने अब कहा था - आदरणीया, निस्संदेह आप एवं मेरे जितनी एवं उससे भी अधिक योग्य व्यक्ति हमारे देश के करोड़ों नागरिक हैं। फिर भी उन्होंने मुझे मेरी राष्ट्रनिष्ठा के कारण योग्य मानते हुए, प्रदेश/देश के मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री चुना एवं पिछले बीस वर्षों से ऐसा अवसर दिया हुआ है। हमारे नागरिकों की ऐसी भावना एवं दिए आदर का मैं अनुग्रह मानता हूँ। इसी कृतज्ञ भाव में मैं अपना यह भी दायित्व मानता हूँ, मैं यह सुनिश्चित करूं कि अगले राष्ट्रपति के रूप में एक राष्ट्रनिष्ठ व्यक्ति इस शीर्षतम पद को सुशोभित करे। आपका राष्ट्रनिष्ठ होना वह कारण है जिससे मैं आपको अभी इस पद हेतु सबसे अधिक योग्य मान रहा हूँ।
मैं प्रधानमंत्री जी के भारत की उन्नति एवं विकास कार्यों के प्रति उनके समर्पण के कारण, उन्हें अपने इष्ट/भगवान तुल्य श्रद्धा भाव से देखती थी। मैं उनसे अत्यंत प्रभावित रहती थी। फिर भी मुझे स्वयं नहीं पता कि उनके इस प्रस्ताव पर उनका आभार मानने के स्थान पर मैं उनसे क्यों प्रश्न कर रही थी। कदाचित् यह मेरा स्वाभिमान था, जो मुझे अपनी योग्यता से बढ़कर कुछ (इतना बड़ा) लेने से मुझे रोक रहा था। मैंने प्रधानमंत्री जी से पुनः प्रश्न किया -
सर, आप और मेरे से अधिक राष्ट्रनिष्ठ व्यक्ति, क्या इस विशाल भारत में कोई और नहीं हैं?
उन्होंने पुनः हँसकर उत्तर दिया - आदरणीया वास्तव में हमारे भारत में कुछ ही व्यक्ति राष्ट्रनिष्ठ नहीं हैं। अनेकों हम जितने ही राष्ट्रनिष्ठ भी हैं। फिर भी उनके जीवन में इन दायित्वों का अवसर नहीं आया है। मुझे ऐसा अवसर नागरिकों ने बहुमत से प्रदान किया है और यह आपको हमारी सरकार की एकमत राय से मिल रहा है। आपको इस शीर्षस्थ पद पर राष्ट्र को सेवा अर्पित करने अवसर लेना चाहिए। इस पद के प्रत्याशी होने के लिए आपको अभी ही अपनी स्वीकृति देनी चाहिए।
मैंने कहा - प्रधानमंत्री जी आप जो कह रहें हैं, उसने मुझे कुछ सीमा तक संतुष्ट किया है। फिर भी ऐसा कोई बड़ा कारण नहीं दिख रहा है, जिससे मैं अपने स्वाभिमान की नहीं सुनते हुए राष्ट्रपति पद पर विराजमान होने के लालच में आ जाऊँ।
प्रधानमंत्री जी ने अब भी धैर्य नहीं छोड़ा था। विनम्रता से उन्होंने बताना आरंभ किया -
आदरणीया, देखिए आप दो बार जनता के द्वारा विधायक के रूप में निर्वाचित की गईं थीं। तब मैं आपको जानता भी नहीं था। इसके उपरान्त आप पार्टी आदिवासी प्रकोष्ठ की अध्यक्षा रहीं। इस पद पर आपकी प्रदत्त सेवा एवं कार्य उल्लेखनीय रहे थे। तदुपरांत आपको राज्यपाल पद का दायित्व सौंपा गया था। छह वर्षों तक आपने यह दायित्व भी कुशलता से निभाया था। इस बड़ी अवधि के अपने सार्वजनिक जीवन में आप कभी विवादित नहीं रहीं हैं। आपकी राष्ट्र के प्रति निष्ठा पर संदेह किए जाने का कोई प्रसंग कभी भी उपस्थित नहीं हुआ है। यह तो आप स्वयं भी मानती हैं या नहीं?
मैंने विचार करते हुए उत्तर दिया - जी यह मैं मानती हूँ और अपने को राष्ट्रनिष्ठ एवं कर्तव्यपरायण महिला ही जानती भी हूँ।
अब प्रधानमंत्री जी ने फिर कहना आरंभ किया -
आदरणीया अब आप अभी का परिदृश्य देखिए। हमारे कुछ विपक्ष के नेता, अनेक नागरिक एवं अनेक विदेशी शक्तियाँ, अपने किसी किसी स्वार्थ एवं अपनी कुत्सित लालसाओं में हमारी भारत माता का चीरहरण करने का लगातार प्रयास कर रहें हैं। हमारे राष्ट्रहित एवं समाज हित में किए जा रहे निर्णयों पर जबरन एवं बार बार आंदोलन खड़ा करके देश एवं सरकार के समक्ष चुनौतियाँ उपस्थित कर रहें हैं। विभिन्न प्रकार के टूलकिट से यह नरेटिव देने का प्रयास किया जा रहा है, यह स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि भारत में मानव अधिकार हनन किया जा रहा है।
ऐसी स्थितियों में आपके राष्ट्रपति होने पर, हमें इन सभी षड्यंत्रों को विफल करने का मार्ग दिखाई दे रहा है। आपकी असंदिग्ध राष्ट्रनिष्ठा, एक अत्यंत ही पिछड़े आदिवासी वर्ग की नेता होना, महिला होना और साथ ही निर्विवादित होना हमें वह विशिष्ठ योग्यता लग रही है, जिसकी सहायता से हम देश में इन अस्तित्व बनाई हुई राष्ट्रविरोधी एवं विदेशों में भारत विरोधी शक्तियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। हम उन सहित सबको संदेश दे सकते हैं कि ना तो भारत में मानव अधिकार का हनन किया जाता है ना ही कोई पक्षपात किया जाता है। हमारे देश में नारी, आदिवासी एवं पिछड़े सभी वर्ग के राष्ट्रनिष्ठ व्यक्तियों के लिए समान अवसर उपलब्ध हैं। जिससे ऐसा कोई भी व्यक्ति भारत के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री भी हो सकता है। भारत प्रजातंत्र में विश्वास करता है। शीर्ष पदों तक पहुँचने के लिए किसी को उसकी कोई पारिवारिक विरासत की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
इस देश में अभी का नेतृत्व सिर्फ एक पक्ष को मजबूत करता है। वह है नागरिक की असंदिग्ध राष्ट्रनिष्ठा जिससे भारत अखंड एवं मजबूत होता है। आपके राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित होने की दशा में, विश्व को संदेश जाएगा कि भारत विश्व का वह राष्ट्र है जहाँ सुदूर ग्राम तथा आदिवासी अंचल में जन्मी बेटी भी जिसकी राष्ट्रनिष्ठा असंदिग्ध है, शीर्ष पद को सुशोभित करने का अवसर पा सकती है। क्या आपको यह कारण नहीं लगता कि आप अपने स्वाभिमान सहित इस पद की प्रत्याशी होने हेतु स्वयं को योग्य मान पाओ?
प्रधानमंत्री जी की बात मैं मंत्रमुग्ध होकर सुन रही थी। मुझे लगा कि हनुमान जी जैसे ही अपनी शक्तियों से मैं स्वयं अनजान थी। मुझे प्रधानमंत्री जी ने मेरी शक्ति एवं योग्यता का अहसास कराया था। फिर भी मैंने कहा था -
अब तक मैं पार्टी की निष्ठावान कार्यकर्ता थी। अब आप मुझे वह दायित्व देना चाहते हैं जो मुझे पार्टी हित (भावना) से ऊपर उठकर कार्य करने का प्रेरित करेगी।
प्रधानमंत्री जी ने कहा - आप भूल रहीं हैं, राज्यपाल होकर आप पहले ही ऐसा दायित्व निभा चुकीं हैं। साथ ही हमारी पार्टी की अपनी कोई भावना राष्ट्रहित की भावना से अलग नहीं है। जो भारत और भारत के राष्ट्रनिष्ठ नागरिकों के हित में है वही हमारी पार्टी की भी भावना है। आप संभवतः राष्ट्रहित की भावना से काम करने का दायित्व पुनः ग्रहण करने वाली हैं। राष्ट्रपति होकर आप वही कीजिएगा जो राष्ट्रहित में उचित होगा। आप मेरे भी हर उस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दीजिएगा जिसमें राष्ट्रहित एवं विकास में आपको संदेह होगा। आदरणीया, क्या अब मुझे इस हेतु आपकी स्वीकृति मिलेगी?
अब मैं अपने पास कोई अन्य विकल्प नहीं देख रही थी। मैंने कहा - प्रधानमंत्री जी आपका आभार सहित आपके प्रस्ताव पर मेरी स्वीकृति है।
प्रधानमंत्री ने हँसकर कहा - जैसे ही आप राष्ट्रपति चुन ली जाएंगी, आप मेरे से बड़े पद पर विराजित हो जाएंगी। तब हम आपके आभारी होंगे। आप हमारे सहित राष्ट्र की सर्वोच्च आदरणीय, प्रथम नागरिक हो जाएंगी। आप अभी से ही आभार जैसी कोई बात कहना बंद कर दीजिए। मेरी अग्रिम बधाई भी स्वीकार कीजिए।
मेरे धन्यवाद प्रधानमंत्री जी, कहने के साथ ही, प्रधानमंत्री जी और मैं एक साथ हँस दिए थे। अंत में अभिवादन सहित कॉल डिसकनेक्ट किया गया था।
प्रधानमंत्री जी के प्रस्ताव से मेरा मन मयूर नाचने लगा था। मैं सोचने लगी थी, तब मैं पाँच-छह वर्ष की और मेरा अपने जन्म ग्राम बैदापोसी (उड़ीसा) में मेरा लालन-पालन किया जा रहा था .....
(क्रमशः)
