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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

मैं, आदिवासी महिला राष्ट्रपति (2)

मैं, आदिवासी महिला राष्ट्रपति (2)

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मैं, आदिवासी महिला राष्ट्रपति (2)

(गतांक से आगे)  


हमारा बैदापोसी (ऊपरवेड़ा) गाँव छोटा सा था। इस गाँव के अन्य घरों की अपेक्षा हमारा घर कुछ अधिक संपन्न था। 

मुझे स्मरण आ रहा था, मेरे पिता ने पास के कस्बे के एक साप्ताहिक बाजार वाले दिन सौदा लेकर लौटते हुए, बच्चों के खेले जाने वाले छोटे ताश की गड्डी, हम बच्चों के लिए ला दी थी। मैं अपने दोनों भाइयों से बड़ी थी। वे छोटे थे वे ताश के पत्तों को फैला देते थे। मैं उन्हें समेट कर रख लेती थी। कई वर्षों तक ताश के ये पत्ते मेरे लिए खिलौना रहे थे। मैं स्कूल जाने लगी तब गिनती सीखती थी। इन ताश के पत्तों को बार बार गिनते हुए मुझे 54 (दो जोकरों सहित) तक की गिनती आने लगी थी। बाद में 100 तक गिनती सीखने के लिए, मैं इन्हीं पत्तों को दो बार गिन लेती थी। इस तरह मुझे 100 के भी 8 ऊपर तक की गिनती बनने लगी थी। 

मैं कह सकते हूँ कि ताश खेलने के लिए, मुझे साथ में किसी अन्य की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। भाई बड़े हुए तो वह इन्हीं पत्तों से दूसरी तरह से खेलते थे मगर मेरा खेल अकेले ही उनसे अलग तरह का चलता था। 

गुणा करना भी मुझे इन्हीं ताश के पत्तों से समझ आया था। 10 (दहला) के 1 पत्ते में दस, दो पत्तों 20 एवं चार पत्तों में चालीस निशान होते हैं, इससे मुझे पत्तों में निशान एवं पत्तों की संख्या (गुणांक) से गुणन फल निकालना आया था। मैं अन्य पत्ते इक्के से लेकर दहले रखकर योग एवं, गुणाफल समझने का अभ्यास करती थी। इस तरह मुझे 10X4 + 9X4 = 76 और इसी प्रकार से अन्य गुणन फल तथा योग समझ आने लगे थे। फिर मैंने दुक्की से लेकर नहले तक के पत्तों से अन्य संख्याओं के गुणा और पहाड़े समझे और याद कर लिए थे। 

गाँव के स्कूल में जब मेरे प्रथम आने से मेरी प्रशंसा होने लगी तब मेरा मन पढ़ने में अधिक लगने लगा था। यह मैंने बाद में समझा था कि ताश को मेरे पिता बुरा क्यों कहते थे। ताश से लोग जुआ खेलते और इसमें कई अपना बहुत कुछ हार जाते थे। फिर भी ताश के पत्ते मेरे लिए बुरे नहीं, अच्छे सिद्ध हुए थे। मैं इनका प्रयोग अच्छे रूप में करती थी। मैं 11-12 वर्ष की हुई थी। मैं स्कूल में अच्छा पढ़ रही थी। मैंने कक्षा पाँच में स्कूल में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। तब प्रसन्न होकर मेरे पिता ने ताश के पत्तों के लिए मेरी पसंद का ध्यान रखकर, मुझे बड़े ताश की गड्डी ला दी थी। इसके पत्ते चिकने एवं इन पर चित्र अधिक आकर्षक थे। 

मेरे पिता गाँव के प्रधान थे। मैं मेरे पिता को सभाओं में मुकुट पहने हुए देखा करती थी। उन्हीं से मैंने समझा था, ताश में मुकुट पहने हुए फोटो वाले पत्ते प्रधान (राजा/बादशाह) कहलाते हैं। मैं बड़ी हो रही थी। अब मुझे ताश में रानी (बेगम) के चित्र वाले पत्ते सबसे सुंदर लगने लगे थे। मैं वय की नई अनुभूतियों में स्वयं को रानी देखती थी। मैं तय नहीं कर पाती थी कि मुझे लाल की रानी होना है या हुकुम की रानी होना है। मगर यह मैंने तय किया था, अपने यथार्थ जीवन में मैं रानी होकर रहूँगी। इस प्रकार मेरे किशोरवय सपने रानी बनने के होने लगे थे। 

मुझे समझ आया था हर रंग के पत्तों (लाल, हुकुम, ईंट एवं चिड़ी में) रानी का बादशाह भी होता है और उनको एक एक दास (ग़ुलाम) मिलते हैं। जीवन में रानी होना मेरी तब की वय का बड़ा सपना हुआ था। 

अच्छा पढ़ने के कारण मैंने गृह जनपद से, स्कूल की पढ़ाई वहाँ प्रथम रहकर पूरी की थी। मेरे पिता इससे बहुत प्रसन्न हुए थे। तब मेरे प्रमाणिक (प्रधान) पिता की महत्वाकांक्षा मुझे लेकर बड़ी हो गई थी। वे चाहते थे मैं भी अपने जीवन में उनके (प्रधान) तरह से कुछ विशेष बनूँ, मैं साधारण नहीं रहूँ। हमारी संथाल जनजाति में लड़की, लड़का को लेकर कोई भेदभाव नहीं किया जाता था। अतएव जब जनपद से कोई भी लड़का या लड़की बाहर पढ़ने नहीं जाता था तब के समय में मेरे पिता ने अपनी आर्थिक स्थिति से बढ़कर, मुझे आगे की पढ़ाई के लिए भुवनेश्वर भेजा था। वहाँ रामादेवी महिला महाविद्यालय में मुझे प्रवेश मिला था। 

यहाँ आकर मुझे प्रॅक्टिकली ज्ञात हुआ कि हम “जनजाति के लोग” कहे जाते हैं। यहीं मुझे पता चला था कि हमारी जीवनशैली मानव की प्राचीन सभ्यता अनुरूप होती थी। जबकि अन्य जाति के मनुष्य अब जीवन की आधुनिक शैली अपना चुके थे। यहाँ हमारे गाँव की तरह के मकान से भिन्न प्रकार के मकान थे। जिनमें कई बहुमंजिला भी थे। भुवनेश्वर के आधुनिक जीवनशैली ने मुझे प्रभावित किया था। फिर भी मुझे यह बात विचित्र लगी थी कि यहाँ लड़का-लड़की को देखने की दृष्टि भेदभाव पूर्ण होती थी। अब तक के अपने जनजातीय ग्रामीण जीवन में मैंने कभी यह भेद नहीं देखा था। मेरे मन में प्रश्न आया था कि यह कैसी आधुनिकता है जिसमें व्यक्ति व्यक्ति में एवं स्त्री पुरुष में अत्यंत अधिक भेदभाव किया जाता है।   

भुवनेश्वर में रहते एवं महाविद्यालय में पढ़ते हुए मैंने यह समझा था कि आधुनिक जीवन शैली में बहुत सी अच्छाइयां होते हुए भी कुछ अच्छाइयां हमारे जनजातीय जंगल एवं ग्रामीण की जीवन शैली में थीं। 

मैंने आधुनिक में से कुछ ग्रहण करते हुए अपनी पुरातन में से मिली अच्छाइयों को बनाए रखने का संकल्प लिया था। साथ पढ़ने वालों से मित्रता हो जाने एवं पढ़ने में मन लगने से मुझे यहाँ रहना अच्छा लगने लगा था। तब भी हम संथाल (प्रकृति पुत्र) जनजाति के द्वारा, बसंतोत्सव में मनाया जाने वाला पवित्र व पावन बाहा पर्व, मुझे बसंत के आगमन के समय मेरे गाँव ऊपरवेडा की याद दिलाता था। 

मैं इस अवसर पर अवकाश लेकर अपने गाँव पहुँच जाया करती थी। वहाँ जब ‘प्रकृति’, फूलों एवं वृक्षों के नए पत्तों से अपना श्रृंगार करती हुई प्रतीत होती थी तब गाँव की अन्य लड़कियों, युवतियों एवं महिलाओं के बीच मैं भी पलाश एवं सारजोम अर्थात सखुआ के फूल को अपने शरीर एवं वस्त्रों में सजाकर अपने समुदाय के नर नारियों के साथ नृत्य गान करती थी। 

बाहा पर्व वाले दिन जाहेर थान में मांझी (प्रधान), जोगमांझी, नायकी, गोडेत पूजा अर्चना के बाद सुडो अर्थात खिचड़ी का महाप्रसाद वितरित करते थे। महाप्रसाद ग्रहण करने के बाद जाहेरथान में हम सब बाहा नृत्य किया करतीं थीं। हम गाते बजाते गाँव पहुंचती थीं। फिर सभी घर-परिवारों की सुख-समृद्धि, उनके निरोगी एवं दीर्घायु होने की कामना करतीं थीं। यह बाहा की शुरुआत होती थी। 

हम संथाल जनजाति में, बाहा पर्व में कन्या के आदर करने की भी परंपरा थी। जाहेर थान में पूजा अर्चना व महाप्रसाद के बाद बाहा नृत्य शुरू होता था। उसी समय मांझी, कुमारी कन्याओं के आदर सहित उनके आंचल में सुख समृद्धि का प्रतीक बाहा फूल डालते थे। जाहेर थान से पूजा पाठ संपन्न कर लेने के बाद मांझी गाँव पहुंचते थे। प्रत्येक घर के सामने मांझी (प्रधान) के पैर धोए जाते थे। उनके पैरों में तेल लगाया जाता था। फिर उत्सव एवं हर्षमय वातावरण में सब एक दूसरे पर पानी उड़ेल कर, हँसी मजाक एवं उल्लास से बाहा पर्व का आनंद लेते थे। 

हम संथाली जनजाति के लोग बाहा पर्व से नए वर्ष का आरंभ मानते थे। बाहा पर्व के बाद ही हम अपना हर शुभ और मंगल कार्य करते थे। 


मुझे बाहा पर्व की यह सभी परम्पराएं मन लुभावनी लगती थी। जब मैं बी ए के अंतिम वर्ष में आई तब मेरी भेंट भुवनेश्वर में ही श्याम से हुई थी। हम समवयस्क थे और वह हमारी ऐसी वय थी कि हम एक दूसरे को चाहने लगे थे। 

श्याम मुझे कहते - द्रौपदी मैं तुम्हें अपनी रानी बनाऊंगा। 

तब मुझे ताश के पत्तों की रानी याद आ जाती थी। मुझे लगता था, श्याम मेरा राजा है। हम दोनों को रंग साँवला था अतः हम दोनों मुझे लाल के नहीं, हुकुम के राजा-रानी लगते थे। 

पूर्व के समय का रानी बनने का सपना होने से, मुझ पर श्याम के प्रेम का रंग पूरी तरह चढ़ गया था। ऐसे में अगर श्याम थोड़ी भी पहल करते तो मैं उन्हें अपना सर्वस्व सौंप देती मगर मेरे श्याम मुझे आत्मिक रूप से प्रेम करते थे। उनमें धैर्य था, वे हमारी शादी होने तक मुझे पाने की प्रतीक्षा कर सकते थे। 

मेरी स्नातक की पढ़ाई हुई थी। मैं उसके बाद गाँव वापस आ गई थी। कुछ माह बाद बाहा पर्व आया था। श्याम से मिले बिना कई माह बीत गए थे। मेरे मन पर उल्लास, उस वर्ष के पर्व में पूर्व भांति नहीं छा सका था। पर्व की हर रस्म-परंपरा में हिस्सा लेते हुए भी मैं श्याम की याद करते हुए, उदास रही थी।  

जाहेर थान में पूजा अर्चना के समय में, मैं मन ही मन अपने शिव भगवान से, श्याम की रानी बनने की प्रार्थना कर रही थी। लगता था मेरी “शिव साधना” में सत्यता एवं शक्ति थी, जिससे शिव भगवान प्रसन्न हुए थे। 

पर्व के दिन से मंगल कार्य का आरंभ होते ही, श्याम अपने मुंह-बोले चाचा लक्ष्मण बासी के साथ रिश्ता लेकर मेरे घर आ गए थे। श्याम और मेरा रिश्ता मेरे पिता बिरंची नारायण टुडू ने स्वीकार नहीं किया था। मेरे पिता इस बात को लेकर मुझसे गुस्सा हो गए थे। 

हमारी संथाल परंपरा में एक के अनुसार मैं घर से भागकर, श्याम के साथ शादी कर सकती थी मगर श्याम ठानकर आए थे कि वे मेरे पिता का मान मनौव्वल करके, उन्हें हमारे रिश्ते के लिए सहमत कराने के बाद ही उनसे आशीर्वाद लेकर मुझसे शादी करेंगें। श्याम ने मेरे पिता को राजी करने के लिए गाँव में ही डेरा डाल लिया था। मैंने भी ठान लिया था कि मैं अपने श्याम से ही ब्याह करुँगी। अंततः चार दिन में मेरे पिता राजी हो गए थे। 

हमारी शादी 1980 में हुई थी। मुझे श्याम के घर वालों की ओर से दहेज में एक गाय, एक बैल और 16 जोड़ी कपड़े मिले थे। यह सब स्मरण करते हुए अब मुझे शादी के बाद, श्याम ने जिस प्यार से रखना आरंभ किया था उसकी मिठास अनुभव हो रही थी। 

तभी मेरे मोबाइल पर कॉल की बजती घंटी, मेरी यादों में खोई अवस्था से मुझे वर्तमान में वापस ले आई थी। 

मैंने मोबाइल देखा था, यह मेरी बेटी इतिश्री का कॉल था। मैंने कॉल लिया तो दूसरी ओर से इति का हर्षातिरेक में डूबा स्वर सुनाई दिया - 

माँ, अभी अभी सत्ताधारी पार्टी ने आपको भारत के राष्ट्रपति का प्रत्याशी घोषित किया है। मेरी माँ, मेरी प्यारी माँ, आई लव यू सो मच। 

मैंने शांत रहते हुए ही पूछा - क्या, मेरा नाम घोषित कर दिया गया है? 

इति ने इस पर पूछा - माँ क्या आपको यह पहले ही पता था? आपने मुझे क्यों नहीं बताया? 

मैंने कहा - हाँ इति, कुछ समय पूर्व ही प्रधानमंत्री जी ने, इस बारे में मुझसे बात की थी। 

अब इति ने तुनक कर पूछा - फिर आपने मुझे पहले ही क्यों नहीं बताया?

मैंने कहा - प्रधानमंत्री जी के कॉल के बाद मैं अतीत की स्मृतियों में खो गई थी। मैं सोच रही थी कि यह दिन देखने के लिए तेरे पिता और भाई आज जीवित होते तो उनकी प्रसन्नता देख कर मेरी प्रसन्नता कई गुना बढ़ सकती थी। 

इति ने जैसे इसे अनसुना कर दिया था। उसने कहा - 

माँ, आपके नाम का प्रस्ताव ऐसा है कि मुझे लगता है कि आप सर्वसम्मति से राष्ट्रपति निर्वाचित हो जाएंगी। 


(क्रमशः)

 


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