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ईश्वर का अंश

ईश्वर का अंश

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"बहिन कल से नव रात्रि शुरु हो रही है, कल सुबह मन्दिर मे देवी को जल चढ़ाने चलोगीऔर भी जाएंगी सब साथ मे चलेंगे।" राजरानी ने सुमित्रा देवी से कहा।

इन्कार का कोई प्रश्न ही नही उठता। सुबह कॉलोनी की अधिकांश महिलाएं और किशोरियां, नंगे पैर, जल पात्र और पूजा के सामान के साथ मन्दिर की ओर निकल पड़ी। सुमित्रा जी भी उनके के साथ थी। कॉलोनी के गेट से बाहर सड़क के किनारे लगे पौधो पर उनका ध्यान गया जिनका कुछ माह पूर्व ही रोपण बड़े समारोह के साथ किया गया था। अब बिना रख रखाव के वे सूख रहे थे। धरती, उनकी जड़ें अपने से अलग करने की कोशिश में थी। तनों ने अपनी कोमलता खो दी थी। पौधों मे दो-चार पत्तियाँ निर्जीव सी झूल रही थी। देवी पर जल चढ़ा वापसी मे उनका अनायास फिर पौधों पर ध्यान चला गया।

दूसरे दिन मन्दिर मे जल चढ़ाने जाते हुए सुमित्रा जी ने थोड़ा बड़ा जल पात्र लिया। सबके साथ चल पड़ी। सड़क पर किनारे लगे चार पौधों पर पात्र का पानी डाल दिया और आगे देवी दर्शन के लिये बढ़ गई पर उतना पानी पौधों की प्यास बुझाने के लिये पर्याप्त नहीं था, यह बात वहअच्छे से जानती थी। घर आई तो काम वाली बाई धुनकी आ गई थी,"धुनकी मेरी बात मानोगी, मैं इस काम के लिये तुम्हें अलग से पैसे दूँगी।

वो जो सड़क के किनारे के चार पौधे सूख रहे हैं न यहाँ से बाल्टी मे पानी ले जाकर उन्हे सींच दोगी, "धुनकी कौतूहल से सुमित्रा जी को देखकर बोली, "अम्मा जी सड़क के किनारे तो बहुत पेड़ सूख रहे हैं, किस-किस को बचाएँगी आप।

"जितना हम कर सकते हैं उतना तो करे, तुम्हें कोई दिक्कत हो तो कहो।

एल्लो हमें काहे की परेशानी, एक तो हमे पैसे मिलेंगे, पानी देने का पु्ण्य भी।"

धुनकी धुन की पक्की। दो बालटियाँ भरी और जाकर पौधों मे डाल आई। सुमित्रा जी रोज जल पात्र में पानी ले पौधों में डाल कर महिलाओं के साथ देवी दर्शन करती,और धुनकी बालटियाँ भर कर जितने पौधों में पानी डाल सकती,डालती।

अष्टमी के दिन मन्दिर से लौटते हुए सुमित्रा जी ने देखा, पौधों की जड़ों को मिट्टी ने अपने में समेट लिया था, तने तन गये थे, कोमल पत्तियाँ हवा के साथ नाच रही थी। सुमित्रा जी का मन खिल उठा। पूरी प्रकृति में ईश्वर का अंश है। मैंने जल ईश्वर को ही अर्पित किया। निर्वाण का ये भी एक पथ है।


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