शरद ऋतु गरीबों का अभिशाप
शरद ऋतु गरीबों का अभिशाप
पिछले वर्ष जनवरी महीने में मैं अपने नानी घर से आ रहा था। रात में करीब दो बज कर तीस मिनट पर गाड़ी एक रेलवे स्टेशन पर रुकी। वहाँ ट्रेन करीब आधा घण्टा रुकती है। मैं ट्रेन के डिब्बे से निकल कर धीरे - धीरे चाय की गुमटी की तरफ़ बढ़ रहा था। गुमटी में तीन अधेड़ उम्र के व्यक्ति बैठे थे। जो इस सर्द भरी रात से बचने के लिए अपने बदन पर एक पतली - सी चादर ओढ़े बैठे थे। जैसे सड़क पर वाहनों की रफ्तार को कम करने के लिए रोड ब्रेकर होता है। उसमें भी चादर करीब दर्जन भर छिद्र, चादर देख के मानो ऐसा लग रहा था जैसे कि किसी रेगिस्तान के बीच में बने महल जिसमे मंज़िल के हिसाब से खिड़की की संख्या हो। उपरोक्त शब्दों से उनकी गरीबी की हँसी नहीं उड़ा रहा हूँ बल्कि अपने देश के उस विकास को यह शब्द बता रहा है जिसमें पिछले चार दशक से हम गरीबी मिटाने की बात कर रहे है। जिसका असली चेहरा यह है। वे लोग गुमटी में चूल्हे की आग को अपनी रजाई बना गुमटी को घर मान कर, गृह चौपाल का आयोजन कर अपने - अपने जीवन की चर्चा कर रहे थे। इसी दौरान उनमें से एक व्यक्ति ने कहा,
”ठंडा बहुत बढ़ गेलइ हे, समझ मे न आवीत हे कि कईसे हमनी गरीब के जिनगी पार लगतइ, सरकारों हमनी पे ध्यान न देईत हई।"
तभी उनके चौपाल को हमारी बोली,
"जरा एक कप चाय जल्दी से दअ, न त ट्रेन छूट जायत हमर" - भंग करती है। चाय लेकर हम वापस ट्रेन में चढ़ गये। चाय की चुस्की लेते हुए उनकी बातों को अपने मन मे मंथन करने लगा। सोचा कि अगर यह मात्र ट्रेलर है तो पूरी फिल्म तो काफी भयावह होगी।
वैसे शरद ऋतु सभी के लिए बहुत ही कठिनाई वाली ऋतु है। यह विशेष रूप से, गरीब लोगों के लिए सबसे अधिक कठिनाइयाँ पैदा करती है, क्योंकि उनके पास पहनने के लिए गर्म कपड़े और रहने के लिए पर्याप्त आवास की कमी होती है। वे आमतौर पर, फुटपाथ या अन्य खुले हुए स्थानों, पार्कों आदि में सूरज की रोशनी में शरीर को गर्मी देने का प्रयास करते हैं। बहुत से बुज़ुर्ग लोग और छोटे बच्चे अधिक सर्दी के कारण अपना जीवन भी खो देते हैं।
शरद ऋतु की चरम सीमा के महीने में उच्च स्तरीय ठंड और तेज सर्द हवाओं का सामना करना पड़ता है। वातावरण में दिन और रात के दौरान बड़े स्तर पर तापमान में परिवर्तन देखते हैं, रातें लम्बी होती हैं और दिन छोटे होते हैं। आसमान साफ दिखता है हालांकि कभी-कभी सर्दी के चरमोत्कर्ष पर दिनभर धुंध या कोहरे के कारण अस्पष्ट रहता है। कभी - कभी शरद ऋतु में बारिश भी होती है और स्थिति को और भी अधिक बुरा बना देती है।
बिहार के आम जनमानस में एक कहावत काफी लोकप्रिय है। जो इस प्रकार है,
"जेठ के दुपहरिया, भादो के अंधरिया, कार्तिक के अँजोरिया एवं माघ के जड़इया अर्थात हिन्दी माह में ज्येठ महीने ( अंग्रेज़ी महीना सम्भवतः मई ) में चलने वाले गर्म हवा यानि लू अन्य महीने से ज्यादा गर्म होता है। ठीक उसी तरह हिन्दी माह भादो ( सम्भवतः सितम्बर ) की रात अन्य महीनों से काफी अँधेरा होता है, वहीं कार्तिक मास ( सम्भवतः नवम्बर ) की रात में अंधेरा ना हो कर काफी हद तक उसमें उजाला होता है, एवं हिंदी महीना माघ जो अंग्रेज़ी महीना में लगभग जनवरी में होता है इस महीने की सर्दी अन्य महीनों की अपेक्षा अपने चर्मोउत्कर्ष पर होती है।"
कहा जाता है कि गर्मी में लोगों की हैसियत का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता है किंतु सर्दी का मौसम ही कुछ ऐसा है कि लोगों की आर्थिक स्थिति की गणना करना आसान हो जाता है। समय आज का हो या दशकों पहले का, शरद ऋतु का मौसम गरीबों के लिए एक दुःस्वप्न से कम नही होता।
उन्हें हर वर्ष एक ऐसे दानकर्ता के इंतज़ार में सर्दी का आधा समय गुजारना होता है कि कोई आयेगा और उनकी मदद करेगा। जो उन्हें इस मौसम में गर्म कपड़े देगा जिससे कि उनकी रक्षा इस सर्द भरी रात से हो सके। क्योंकि कहा जाता है कि लू मारल खीरा से, ठंडा मारल हीरा से भी ना, अर्थात गर्मी के महीने में अगर गर्म हवाओं का आपके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है तो वह एक खीरे से भी ठीक हो सकता है। यहाँ खीरे की संज्ञा इसलिए दी गई है कि जिस तरह से खीरा सर्व सुलभ है जो कि ज़्यादा मूल्यवान भी नही है। वहीं हीरा से तात्पर्य है कि हीरा बहुमूल्य होता है जो कि हर एक की पहुँच से बाहर होता है।
यही कारण है कि शीत लहर गरीबों के लिए अभिशाप से कम नहीं होती है।