अब छुट्टियों में घर ना आना
अब छुट्टियों में घर ना आना
"अजी सुनिए! जरा बाजार से ये सारे सामान ला दीजिए।" शारदा जी ने थैला और सामान का लिस्ट पति रामदीन बाबू को पकड़ाते हुए कहा।
"बाहर इतनी ठंड पड़ रही है,लोग घर से बाहर नहीं निकल रहे और आपको सामान मंगाना है? वो भी इतनी बड़ी लिस्ट! क्या सब लेना है? आंवला, गाजर, मटर, मूली और इतने सारे मसाले? क्यों भई! इतनी चीजें वह भी इतनी मात्रा में क्यों? हम ढाई सौ ग्राम ले आएंगे वो भी हमारे लिए काफी हो जाएगा फिर किलो, 2 किलो की मात्रा में क्यों! आखिर क्या करोगी इतने चीजों का?"
"हे भगवान! कितना सवाल कर रहे हैं। पहले सारा सामान लेकर आइए फिर बताऊंगी।"
"अरे बताओ तो क्या करना है?"
"वो क्रिसमस की छुट्टी हो रही है तो विवेक बच्चों को लेकर आ रहा है और छोटी बहू ने भी थोड़ी बहुत चीजें भेजने को कहा है तो बस उसी के लिए तैयारी कर रही हूं।"
"तुम्हें कैसे पता?"
"आज दोपहर को ही दोनों ने फोन किया कि बच्चों की छुट्टी है तो आ रहे हैं।"
"पर इतनी ठंड में आने की क्या जरूरत है?"
बच्चे जिद कर रहे हैं और 1 सप्ताह की छुट्टियां भी मिल रही है तो आ रहे हैं।
"तो क्या क्या बनेगा इन चीजों का?"
"आंवले का मुरब्बा, गाजर मूली का अचार और साथ में गाजर का हलवा भी। ताज़े हरे मटर की पूरियां और छोले। फोन पर विवेक बता रहा था कि मां, आपके हाथों का गाजर का हलवा और आंवले का मुरब्बा बहुत मिस कर रहा हूं। बहू भी बोल रही थे कि गाजर मूली का अचार बना दीजिएगा मुझे नहीं आता है। बस इसी सबके लिए मंगवा रही हूं। जब तक वे आएंगे तब तक बना कर तैयार रखूंगी।"
"लेकिन ये सब बनाने की क्या जरूरत है? इतनी ठंड पड़ रही है कैसे बनाएंगी। दो टाइम का खाना ही बनाना मुश्किल होता है फिर इतनी सारी चीजें?"
"अरे जाइए ना मैं बना लूंगी आप क्यों परेशान हो रहे हैं?"
रामदीन बाबू समझ गए अभी ये मेरी बात नहीं समझेगी इसलिए चुपचाप थैला और सामान का लिस्ट लेकर चले पड़े बाजार की ओर।
बाजार जाते हुए रास्ते भर पत्नी शारदा के बारे में ही सोचते रहे। फिर इस बार शारदा परेशान होगी, उसकी तकलीफ बढ़ेगी। नहीं, मैं कोई सामान नहीं लूंगा अब उसे और परेशान या बीमार नहीं होने दूंगा।
वो बाजार तो गए पर दोनों पति-पत्नी को जितना जरूरत हो उतना ही सामान लेकर घर आए।
घर पर जब शारदा जी ने देखा कि सामान नहीं लाए तो बिफर पड़ी।
"क्यों नाराज हो रही हो? और मैंने कहा ना ये सब बनाने की कोई जरूरत नहीं।"
"क्यों जरूरत नहीं है? बेटे बहू ने मुंह खोलकर कहा है। नहीं बनाऊंगी तो कितना बुरा लगेगा। वैसे भी साल में एक दो बार तो आते हैं। अगर उसमें भी मैं उसकी इच्छा नहीं पूरी की तो फिर मैं कैसी मां?"
"अरे लेकिन यह सब तो बाजार में बना बनाया भी मिलता है। अगर घर का बना हुआ पसंद है तो उसे आने दो तब तुम बता देना और वो खुद बना लेंगे। सब बन भी जाएगा और सीख भी लेंगे।"
"आप ऐसी बातें क्यों और कब से करने लगे? अरे वह कोई गैर नहीं हमारे बच्चे हैं और यह मत भूलिए हमारे बुढ़ापे का सहारा वही सब बनेंगे।"
तुम भी ना शारदा किस दुनिया में जी रही हो अरे मैं 70 साल का हो गया और तुम उम्र 65 साल की। अब तक बच्चों ने हमारे बारे में नहीं सोचा अभी इतनी ठंड पड़ रही है, गर्मी पड़ती है, बारिश होती है। हम दोनों अकेले कैसे रहते हैं? एक बार भी जानने या पूछने की कोशिश नहीं की। और ना ही हमें अपने पास बुलाया फिर भी तुम्हें लगता है वे हमारे सहारे बनेंगे? वैसे भी मुझे किसी के सहारे की जरूरत नहीं, अकेला ही काफी हूं।"
"अभी बोल रहे हो अकेला काफी हूं लेकिन जब बिस्तर पकड़ लोगे तब क्या होगा?"
"वही तो मैं बोल रहा हूं। अभी हम दोनों ठीक-ठाक हैं, हाथ पर चल रहा है तब तो बेटा बहू कोई एक बार नहीं पूछता। अगर बिस्तर पकड़ लिया तब कौन आएगा? क्या तुम्हें विश्वास है वे हमारी देखभाल करने आएंगे? यह सहारे की बात छोड़ो! ये सब मुश्किल से हफ्ते या 15 दिन के लिए आते हैं पर इतने दिनों में तुम्हारी परेशानी कितनी बढ़ जाती है। आने के हफ्तों पहले से उनके खाने पीने, रहने सोने, पसंद नापसंद की व्यवस्था करो। उनके आने के बाद सारा काम करो, आगे पीछे करो सबकी फरमाइश पूरी करो और सबके जाने के बाद भी फिर सब कुछ अकेले समेटना। क्या एक भी काम में वे तुम्हारा हाथ बंटाते हैं? बस फरमाइश की चीजे खाया पिया इधर-उधर घुमा फिर अपना सामान बांधा और विदा हो गए। कहने को हमसे वे मिलने आते हैं लेकिन क्या कभी पल दो पल हमारे पास बैठते हैं या हमसे पूछते हैं कि आप दोनों अकेले कैसे रहते हैं? मेरा तो मन कर रहा है कि आने से ही मना कर दूं। क्या जरूरत है इतनी ठंड में आने की? वैसे ही तुम्हारा दोनों घुटना दुख रहा है, मेरा कमर दर्द हो रहा है। और अब इस उम्र में इतना चाकरी करोगी।"
शारदा जी ने जब कोई जवाब नहीं दिया तो रामदीन बाबू कमरे में चले गए और शारदा जी रसोई में चाय बनाने।
चाय बनाते हुए दिमाग में पति की कही सारी बातें घूमने लगी। हां, भले ही उन्हें पति के बातों का बुरा लगा लेकिन उनका भी कहना सही है। जैसे ही बच्चों के घर आने के बाद पता चलती है वह सारी तैयारी में जुट जाती है। सभी अपनी फरमाइशों की लंबी लिस्ट बता देती है और सब पूरा करने में चक्करघीन्नी बन जाती है। कोई मेरा हाथ नहीं बंटाता। हां बीच-बीच में यह जरूर कहते हैं कि मां, आपके हाथों का खाना बहुत अच्छा लगता है। आपके जैसा मैं नहीं बना पाती हूं आपके हाथों में तो मानो जादू है। यही मीठी मीठी बातें कर मुझे सारा काम करवा लेती है। बुरा तो मुझे भी लगता है लेकिन चाह कर भी मुंह नहीं खोल पाती हूं कि बच्चे कुछ दिनों के लिए ही तो आए हैं इसमें क्या बोलूं?
खैर चाय लेकर जब शारदा जी के कमरे में आई तो मन हुआ कि एक बार और बोलती हूं सामान ला देने के लिए पर हिम्मत नहीं हुई। इसी बात को लेकर दोनों में थोड़ा मनमुटाव हो गया।
तय समय पर बेटा बहू बच्चों के साथ आए। संयोगवश उसी दिन बेटी भी ससुराल से आ गई मां से मिलने। तो घर में बहुत चाहल पहल मच गई। सब अपने अपने कमरे में टीवी के सामने जम गए, हंसी मजाक करने लगे और शारदा जी रसोई में सबकी पसंद का खाना बनाने लगी।
बहू, बेटी दोनों में से किसी ने कोई मदद तो नहीं की लेकिन हां बीच-बीच में आकर पूछते रहे मम्मी, कुछ हेल्प कर दूं? नहीं मम्मी आप ही बनाइए मैं कुछ करूंगी और कहीं गड़बड़ ना हो जाए। आपके जैसा मैं नहीं बना पाती हूं। हां,अब इतने दिनों बाद आए हैं तो आपके हाथों का खाने का मन हो रहा है। शारदा जी सब बनाने लगी तभी बेटे ने आवाज लगाई, मम्मी, आंवले का मुरब्बा बनाया क्या? आपने अबतक खाने को दिया नहीं!"
शारदा जी कुछ जवाब देती उससे पहले ही रामदीन बाबू दिन बाबू सामान का थैला लेकर आंगन में घुसे।
"अरे बेटा! इस बार तो तुम्हारी मां कुछ नहीं बना पाई पर हां, मैंने सब सामान ला दिया है तो अब बहू को कहो कि बना ले और हां प्रिया(बेटी) तुम भी मदद कर देना।
"क्या मम्मी? आपने क्यों नहीं बनाया? मैंने आपको कहा था बनाकर रखने के लिए।" बेटे ने कहा।
" हां मम्मी, अब मैं दो-चार दिनों के लिए आई हूं छुट्टी इंजॉय करूं या यह सब बनाने बैठूं? मैंने आपसे कहा था ना मुझे यह सब बनाना नहीं आता।" बहू ने कहा।
"अरे! दो-तीन दिन में तो आराम से बन जाएगा। अगर नहीं बनाने आता है तो मम्मी बताती है तुम दोनों मिलकर बना लो। इस बार की छुट्टियां यही सब बनाकर इंजॉय कर लो, तुम्हारा सामान भी बन जाएगा और सीख भी जाओगी एक पंथ दो काज। क्यों बेटा मैंने सही कहा ना?"
"पापा इस तरह क्यों बात कर रहे हैं? मम्मी को बनाने आता है इसीलिए बोला। हम तो यह सोच कर आए थे कि कितने दिन हो गए तो मम्मी पापा से मिलकर आते हैं।पर यहां तो लगता है मम्मी पापा को हमारा आना पसंद नहीं आया, इन्हें हमारी कुछ नहीं पड़ी, हमारी जरूरत नहीं।"
"हां बेटा, सही कह रहे हो। जीवन भर हमें ही तुम सबकी पड़ी रहनी चाहिए तुम्हें हमारी नहीं। और सच में मुझे तुम सब का आना पसंद नहीं क्योंकि मैं नहीं चाहता तुम्हारी मां अब और ज्यादा दुखी हो। तुम लोग तो हफ्ते 15 दिन समय बिताकर चले जाते हो पर तुम सबके आने पर तुम्हारी मां की परेशानी कितनी बढ़ जाती है क्या वो कभी देखा या महसूस किया है? एक तो अकेली रहती है तो तुम सबके आने की खुशी में पागल हो जाती है। हफ्तों पहले से तैयारी करने लगती है जब तक तुम लोग रहते हो पूरा दिन काम में लगी रहती है। मैं बेटी और बहू दोनों से कहता हूं क्या तुम दोनों ने कभी किसी काम में हाथ बंटाया है? अगर तुम लोग आराम करने की उम्मीद से आते हो तो हम भी उम्मीद लगा कर बैठते हैं कि हमारे बच्चे आएंगे तो हमें थोड़ा आराम मिलेगा। पर क्या हमें मिलता है? फिर सब के जाने के बाद वही अकेलापन, शारीरिक और मानसिक कष्ट दोनों होता है वो अलग। एक बार भी यह सोचते हो कि अकेले सब करने में क्या होता है? कितनी तकलीफें होती होगी? अब उसकी भी उम्र हो गई है। तुम कहते हो कि हमसे मिलने आए हो। पर सच बताना कितनी देर हमारे पास बैठते हो।
पिता की बातें सुनकर बेटे का सिर शर्म से झुक गया, कुछ नहीं बोला।
"बेटा, तुम पापा के बातों का बुरा मत मानो। सामान आ गया है तो मैं सब बना देती हूं।
"नहीं मां, बुरा नहीं लगा! बल्कि आंखें खुल गई। सही कहा आपने, मैंने तो कभी सोचा नहीं कि हमारे आने से आपका काम कितना बढ़ जाता है, कितनी तकलीफें बढ़ जाती है।"
" तो क्या बेटा अब तुम नहीं आओगे?"
"हां मां बिल्कुल आऊंगा! आप दोनों की तकलीफ बढ़ाने नहीं कम करने। और हां पिताजी, मैं आज ही आप दोनों के लिए टिकट बुक करता हूं। आप दोनों भी मेरे साथ शहर चलिए।"
बेटे की बात सुनकर दोनों पति-पत्नी की आंखें सजल हो गईं।
तब तक बेटी सामान का थैला उठाकर लाई। "हां मां, आप सिर्फ हमें बता दीजिए हम दोनों मिलकर सारी चीजें बना लेते हैं।"
शारदा जी ने मुस्कुराकर "हां" में सिर हिलाया।
