बोलना जरूरी है
बोलना जरूरी है
रचना जल्दी-जल्दी हाथ चला रसोई में काम निपटा रही थी। मन में यह सोचते हुए कि जबतक बच्ची सो रही है तब तक रसोई के काम जल्दी से निपटाकर उसके सारे गंदे कपड़े धो लुंगी। पिछले 2 दिन से उसे सर्दी जुकाम तो था ही कल रात वामिटिंग भी बहुत हुआ जिससे गंदे कपड़े बहुत जमा हो गए थे। यह सोच रही थी कि तभी 3 महीने की बच्ची जोर से रोते हुए उठ गई। जब तक वो हाथ धोकर बच्ची को उठाती उससे पहले ही ननद ने जाकर ले लिया ताकि रसोई में जाने से बच सके। परंतु रचना फिर भी गई कि लाइए दीजिए भूख लगी होगी मैं दूध पिला देती हूं। खाना बन गया है आप जाइए बस मम्मी को खाना निकाल कर दे दीजिए।
सुनकर ननंद ने मुंह बनाते हुए कहा, मैं कुछ देर संभालती हूं। आप मम्मी पापा को खाना दे कर आइए और रसोई के काम भी निबटा लीजिए।
वह कुछ बोलती उससे पहले ही सास ने कहा, "अरे! वह बच्ची को संभाल रही है ना! तब तक तुम किचन का काम समेट लो। कितनी भूख लग गई होगी? थोड़ा भूख बर्दाश्त होना चाहिए बच्चे को।"
रचना मन मसोस कर चली गई लेकिन तब तक बच्ची ने पॉटी कर दिया। तब ननंद ने बच्ची को भाभी के गोद में देकर मम्मी पापा के लिए खाना भी निकालने गई।
सासू मां खाना खाकर उठी कि उनकी दो-तीन सहेलियां उनसे मिलने आ गई। सासू मां अभी 1 सप्ताह पहले ही हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होकर आई हैं। इसलिए रिश्तेदारों के साथ, पड़ोसियों और सहेलियों का भी आना जाना लगा रहता है।
"तब राधिका! अब तबीयत कैसी है? डॉक्टर ने क्या कहा? हम लोगों ने सोचा कि हॉस्पिटल आऊं तुमसे मिलने फिर सोचा कि घर आ जाएगी तभी अच्छे से मिलकर बात भी कर लेंगे इसलिए नहीं गए।" सहेलियों ने कहा।
"अरे कोई बात नहीं।"
अभी बात कर ही रही थी कि तब तक ननद ने सासु मां को दवाई निकालकर दी।
यह देखते ही सहेलियों ने तुरंत पूछ लिया।
" तब बहु ख्याल रखती है कि नहीं? सेवा करती है, समय पर खाना, दवा पानी देती है ना?"
जिसे सुनकर राधिका जी ने तुरंत आंखों में आंसू भरकर मुंह बिचकाते हुए कहा, नहीं बिल्कुल नहीं! कोई ख्याल नहीं रखती। कोई सुख नहीं है। वो तो किस्मत की धनी हूं मैं कि मेरा पति अच्छा है। और भला हो मेरे बेटा और बेटी का जो हर समय मेरे आगे पीछे लगे रहते हैं। सबसे ज्यादा तो मेरी बेटी हॉस्पिटल में भी साथ नहीं छोड़ा। और ये तो कभी हॉस्पिटल में देखने के लिए भी नहीं आई। अगल बगल में जो भी पेशेंट थे सब पूछ रहे थे घर में और कोई नहीं है? आपके पास तो सिर्फ आपकी बेटी और पति ही रहते हैं। सुनकर मैं चुप रह जाती थी। क्या बोलूं? कैसे बोलूं कि बहू भी है लेकिन नहीं आती है। अभी घर में भी यह अपने बच्चे और काम के पीछे लगी रहती है दवाई निकालकर मेरी बेटी देती है तो कभी पति देता है?"
ननद ने भी अपनी मां की हां में हां मिलाते हुए कहा, "आंटी जी, मैं अगर मां को नाश्ता ना दूं तो नाश्ता भी नहीं मिलेगा।"
"हां, वह तो देख रही हो अभी तुम ही दवाई दे रही हो।"
"हे भगवान कैसी कठोर दिल की है तेरी बहू ? अगर तुम्हारी जगह इसकी अपनी मां रहती तो क्या नहीं जाती? नहीं सेवा करती आने दो अभी बोलती हूं।"
"नहीं-नहीं मत बोलना जाने दो। बिना मतलब बात बढ जाएगी।" सासू मां ने कहा।
यह सब बातें कर ही रही थी कि तब तक रचना सबके लिए चाय पानी लेकर आ गई।
लीजिए आंटी जी चाय पीजिए। रचना ने कहा तो वहां बैठी एक दो महिला ने मुस्कुराकर धन्यवाद कहा परंतु एक जो सास की पक्की सहेली थी। उन्होंने लगभग रचना को झिरकते हुए कहा।
"क्यों बहू! सास का ध्यान क्यों नहीं रखती है? बेचारी मरते-मरते बची है, थोड़ा तो सेवा पानी कर कि जल्दी स्वस्थ हो जाए। अगर इसकी जगह तेरी मां होती थी तो क्या छोड़ देती? नहीं ना!
सुनकर रचना थोड़ा चौंक गई। वह कुछ बोलती उससे पहले ही सासु मां बीच बचाव करने लगी।
"अरे बहू, तुम बुरा मत मानना। मैंने कुछ नहीं कहा। बस इसे मेरी तकलीफ देखी नहीं गई इसलिए बोल दिया।"
यह सुनकर रचना को बहुत बुरा लगा। क्योंकि यह बातें लगभग रोज की हो चुकी थी। कोई ना कोई कुछ बोल ही देते, सुना देते या नहीं तो नजरों में बता देती कि मैं सासु मां की सेवा नहीं करती हूं। गुस्सा आने के बावजूद भी वह सामान्य होती हुए बोली।
"नहीं मां जी, मुझे बुरा क्यों लगेगा? मैं तो बहू हूं और बहू का दिल तो वज्र के समान होता है जिसे ना तो चोट पहुंचती है ना ही दर्द ना कोई तकलीफ होती है।"
"अरे! हमने ऐसा क्या बोल दिया जो तू कहां की बात कहां लेकर जा रही है? सच कहते हैं आजकल की बहु को ना जरा भी सहनशीलता नहीं है। बस जरा सास की देखभाल करने को कहा और देखो तो तेवर! भगवान बचाए ऐसी बहुओं से तो।" आंटी ने फिर कहा तो अब रचना को रहा नहीं गया।
"आप कैसे जानती है आंटी जी, कि मैं सास की सेवा नहीं करती हूं? अभी ननंद को दवाई देते देख लिया इसलिए? एक बीमार व्यक्ति के पीछे कितना काम होता है क्या यह आप सब नहीं जानती? इनसे जुड़े सारे काम मैं करती हूं। इसके अलावा घर में और भी सैकड़ों काम है, मेरे दो बच्चे भी हैं जो मुझे ही देखने हैं कोई हाथ नहीं बंटाता है। इस सब का कोई मोल नहीं है। हां, नाश्ता और खाना कभी कभी मेरी ननद भी दे देती हैं पर एक बार यह भी तो सोचिए कि समय पर और गरम गरम खाना बनाता कौन है?
"हां, मैं हॉस्पिटल में नहीं रुकी क्योंकि वहां पापाजी रुके थे तो सबको रुकने रुकने की जरूरत नहीं थी। फिर मेरा छोटा बच्चा था तो डॉक्टर ने वैसे भी आने से मना कर दिया। लेकिन एक बार यह भी तो सोचिए कि इतना बड़ा परिवार, सारे काम, अपने दो बच्चे फिर जो लोग आए इनका हालचाल पूछने या जानने के लिए उनकी सेवा सत्कार, चाय पानी किसने देखा? मैंने अकेले ही देखा सब। रही बात ननद की हॉस्पिटल में रुकने की तो वह हॉस्पिटल में रुक कर भी क्या कर लिया? डॉक्टर ने घरवालों को पेशेंट के पास बैठने से मना कर दिया था। मिलने के लिए भी एक समय तय किया गया था। बाकी जो दवाइयां इंजेक्शन पेशेंट के लिए आता था वह नर्स खुद लाती थी। फिर पापा जी थे तो सबको वहां रुकने की जरूरत थी क्या? अगर मैं भी वहां जाती तो घर का काम कौन देखता?"
"अच्छा तो कौन तुम्हें बोल रहा है कि तुमने कुछ नहीं किया?" सासू मां ने कहा।
"कौन क्या? आप ही तो रोज सबसे बोलती हैं।
मैंने अकेले इतना काम किया और करती हूं किसी को नजर नहीं आया। घर में सब के लिए खाना-पीना के साथ हॉस्पिटल में पापा जी के लिए भी रोज खाना भेजती थी। अब भी मां के लिए अलग खाना और हमारे लिए अलग होता है क्या उस समय परेशानी नहीं होती समय नहीं लगता? और पूछ लीजिए इनसे(ननद) कि अगर मेरा बच्चा रोता रहे तो भी रसोई में आती है? नहीं! बल्कि रोती बच्ची को लेकर निकल जाती है ताकि रसोई में ना जाना पड़े। यह तो कोई नहीं देखता अगर देख भी लिया तो कुछ नहीं बोलता। बस दवाई निकाल कर दे दी, बना बनाया खाना निकाल कर दे दिया तो वही सब करती है, वही अच्छी है। और मैं सारा काम करके भी बुरी की बुरी ही रह गई। घर वालों से लेकर बाहर वालों तक की नजर में भी।
और आंटी जी मुझे सुनाने से पहले एक बार अपनी सहेली के बारे में सोच कर देखिए! वो बीमार है, उनको डॉक्टर ने आराम करने को कहा है, कम बोलने को कहा है लेकिन घर से लेकर हॉस्पिटल तक मेरी बुराई करने में पीछे नहीं रही। अगर अगल-बगल के पेशेंट ने पूछ लिया तो ये नहीं बता सकती थी कि घर पर दो बच्चे हैं, घर में और भी लोग हैं। जिसे बहू ही संभाल रही है। रही बात इन्हें मां मानने की तो मैं तो जिस दिन शादी करके आई उसी दिन से मां बोल रही हूं और मां मान भी रही हूं। अपना मान लिया सबको
लेकिन इन सब ने मुझे कभी अपना नहीं माना। मैं पहले भी पराई थी और आज भी पराई ही हूं।"
रचना के बोलते ही सास के साथ सभी सहेलियों की बोलती बंद हो गई।
"अरे! क्यों इतना नाराज हो रही? इतना बोलने की क्या जरूरत है? अब तुम्हारे घर में क्या होता है हमें कैसे मालूम? हम थोड़ी ना देखने आते हैं? वैसे तुम्हारा कहना भी सही है।"
" बोलने की जरूरत है आंटी! ताकि सबको सच्चाई का पता चले और समझ में भी आए कि किसी की आधी अधूरी बातें सुनकर किसी की बहू बेटियों को नहीं सुनाना चाहिए, उसके बारे में बुरा ख्याल नहीं बनाना चाहिए।"
बोलकर रचना अपने कमरे में गई। सासु मां भी चुप हुई और सभी सहेलियां भी अपने घर को चली।