Ratna Sahu

Others

5.0  

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अपना घरौंदा

अपना घरौंदा

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"शारदा सुनो! अभी-अभी विनय का फोन आया था उसने हमें कल आने के लिए कहा है।"


"आने कहा है पर किस लिए?" शारदा जी ने पूछा


"उसने घर लिया है। कल गृह प्रवेश कर रहा है उसी के लिए हमें बुलाया है।"


"क्या गृह प्रवेश? उसने घर लिया है?"


"हां।"

"पर कब लिया? हमें बताया तक नहीं, पता नहीं चलने दिया? क्या आपको मालूम था?"


पति ने ना में सिर हिला दिया।


"यह सुनकर शारदा जी सन्न रह गईं। बेटा ऐसा कैसे कर सकता है? उसने घर ले लिया और हमें बताया तक नहीं। आखिर हमसे क्या गलती हो गई, किस बात की तकलीफ है जो हमसे पूछना, राय विचार लेना तो दूर जानकारी तक नहीं होने दी। कहीं उसे ऐसा तो नहीं लगा कि हमें बता देगा तो हम घर खरीदने से मना कर देंगे?"


"अब जो भी है शारदा रहने दो। क्यों इतना सोच रही हो? अरे वह छोटा बच्चा थोड़ी ना है जो हर छोटी-मोटी बात हमसे पूछे या राय विचार लें।"


पति की बात सुनकर शारदा जी की आंखों में भर आए आंसू बह निकले।


"क्यों ना सोचूं? आखिर हम उसके मां-बाप हैं क्या हमें इतना भी जानने का हक नहीं? माना कि वह छोटा बच्चा नहीं रहा पर क्या हमें बताना भी जरूरी नहीं समझा? अरे हम तो एक छोटा काम भी बिना मां बाप की अनुमति लिए उनसे पूछे बिना नहीं किया फिर उसने कैसे कर लिया? वो बताता तो हमें भी खुशी मिलती।"


"देखो वह तब की बात थी अब समय बदल गया है, बच्चे काफी होशियार और समझदार हो गए हैं। हमारी और उनके सोच में काफी फर्क आ गया है। तो अब यह सब सोचना बंद करो। चलो दो कप चाय बनाओ हम साथ में बैठकर चाय पीते हैं फिर बाहर टहलने चलते हैं।" पतिदेव ने शारदा जी के गाल पर लुढ़क आए आंसू को अपने हाथों से पोछते हुए कहा।


सुनकर शारदा जी चुपचाप उठ कर रसोई में चाय बनाने चली।


रसोई में खड़े खड़े उन्हें पिछली सारी बातें एक-एक कर याद आने लगी। जब वह ब्याह कर तब संयुक्त परिवार था। तीन जेठानी देवरानी थे और सास ससुर सभी एक साथ रहते थे। परिवार को देखते हुए घर छोटा पड़ रहा था तब शारदा जी का कितना मन था कि वह अपनी अलग गृहस्थी बसा ले, अलग घर ले लें लेकिन पतिदेव ने साफ मना कर दिया कि जब तक मम्मी पापा नहीं कहेंगे, तब तक हम अलग घर नहीं बसा सकते। सास ससुर भी सारी बातें जानते हुए कभी अलग होने को नहीं कहा। उन्हें लगता था अलग होने से उनका घर टूट जाएगा, परिवार बिखर जाएगा। इसीलिए काफी दिक्कतों के बावजूद भी उनके जीवित रहने तक संयुक्त परिवार ही रहा। फिर बाद में जब घर का बंटवारा हुआ तब दो बेटी की शादी, बेटे की पढ़ाई लिखाई में जो व्यस्त हुए तो अपना घर बनाने का मौका नहीं मिला। तो जो घर हिस्से में आया उसी में रह रहे थे। हां, मन में एक जरूर आशा थी कि जब बेटा पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी करने लगेगा तब एक बड़ा घर बनवाऊंगी जिसमें हम दोनों पति पत्नी और बेटे बहु सब एक साथ रहेंगे। जो अपना घरौंदा कहलाएगा। पर यहां तो..


अब समझ में आ रहा है। जब कभी पैसे मांगे तो उसने देने से इंकार क्यों कर दिया? यही सब सोच कर एक बार फिर आंखों से आंसू बह गए।


पीछे खड़े पतिदेव उन्हें देख रहे थे अबकी बार ना कुछ बोले ना ही आंसू पोंछे। तुम्हें जितना रोना है रो लो शारदा। मैं जानता हूं तुमने उसके परवरिश में अपना तन मन लगा दिया, अपने आप को समर्पित कर दिया। ना जाने कितने इच्छाओं का त्याग कर दिया। मन में बोलकर वह भी वहां से उठ कर बरामदे में आ गए।


शारदा जी ने सिर्फ एक कप चाय पतिदेव के लिए बनाई खुद नहीं ली और बाहर जाने से भी इंकार कर दिया।


"ठीक है फिर जो कुछ भी ज़रूरत की चीजें हैं वह पैक कर लो। विनय बोल रहा था कल सुबह ही गाड़ी आ जाएगी।"


"क्या हमारा जाना जरूरी है? जाना है तो आप जाइए मेरा मन नहीं हो रहा।"


मन तो उनका भी जाने का नहीं हो रहा था फिर भी उन्होंने कहा।


"चलिए चलकर आशीर्वाद दे देते हैं।आखिर वह हमारी संतान है। वह हमसे विमुख हो सकता है हम नहीं। हमेशा बोलता था, मैं बहुत पढ़ाई करूंगा, बड़ा आदमी बनूंगा फिर अपना घरौंदा बनाऊंगा सच में उसने अपना घरौंदा बना लिया।"


पति की बात सुनकर शारदा जी ने भारी मन से अपना बैग पैक कर लिया। अगले दिन समय से गाड़ी आ गई और वह दोनों बैठ कर विदा हो गए।


दूर से ही बेटे का घर देखकर शारदा जी की आंखें फटी की फटी रह गई। दो तल्ले का बड़ा बंगला था। कार से उतर कर जब मेन गेट पर गई तो बड़े अक्षरों में लिखा था 'अपना घरौंदा' शारदा जी पढ़कर पति की तरफ देखने लगी। तभी उन्होंने घर के नेम प्लेट की तरफ इशारा किया जहां पर लिखा था दीनानाथ सहाय और शारदा सहाय।


शारदा जी चौंक गई अपने दोनों पति-पत्नी का नाम देखकर।


नेम प्लेट पर हम दोनों का नाम लिख दिया ताकि दुनिया वालों को लगे कि मां बाप के लिए घर लिया है। बड़ा होशियार निकला मेरा बेटा तो।


तब तक बेटे बहु भागकर अंदर से आए। मम्मी पापा आप बाहर ही रुकिए।सुनकर दोनों बाहर ही ठिठक गए आखिर अब क्या नौटंकी बाकी है?


तभी बेटा बहू कलश लेकर और साथ में पंडित जी को भी।

"मां यह कलश लीजिए। पापा जी आप मां का हाथ पकड़िए और यह चाबी लीजिए। पंडित जी आप मंत्र पढ़ेंगे तब आप दोनों अपने हाथों से दरवाजा खोल कर कलश लेकर अपने घर यानी अपना घरौंदा में प्रवेश करेंगे।"


बेटे बहू की बात सुनकर एक पल के लिए दोनों पति-पत्नी को कुछ समझ नहीं आया।


"हां मां, आपका अपना घरौंदा! आपके सपनों का घर! आप दरवाज़ा खोलिए और अपने शुभ कदम रखिए।"


"मां जी, जल्दी कीजिए सबसे शुभ मुहूर्त है ये और कुछ ही देर का है तो जल्दी कीजिए। बहू के साथ पंडित जी ने भी कहा तो शारदा जी ने हां में सिर हिलाकर दरवाजा खोल कलश लेकर दोनों पति-पत्नी घर में कदम रखा। बेटा बहू दोनों ने मिलकर सास ससुर का आशीर्वाद लिया और हाथ पकड़ पूरा ऊपर नीचे घर का एक-एक कोना दिखाया।


घर के अंदर की सजावट और शानो शौकत देख दोनों दंग रह गए।


"मां, घर अच्छा लगा ?"

शारदा जी ने हां में सिर हिलाया।


"मां आज से एक फ्लोर पर आप दोनों रहेंगे और एक फ्लोर पर हम दोनों। तो बताइए आप किस फ्लोर पर रहना पसंद करेंगी?" बेटे ने कहा तो शारदा जी पति की तरफ सवाल भरी नजरों से देखने लगे।


"नहीं नहीं मां! मैं अलग होने के बाद नहीं कर रहा। बस हमारा फ्लोर अलग रहेगा लेकिन चाय नाश्ते से लेकर लंच डिनर और खासकर ड्राइंग रूम एक ही रहेगा। तो आप बोलिए आप किस फ्लोर पर रहना पसंद करेंगे नीचे या ऊपर?


सुनकर शारदा जी दोनों पति-पत्नी बहुत भावुक हो गए।

" बेटा तुम जहां कहो हम वहीं रह लेंगे। पर एक बात बताओ तुमने हमें बताया क्यों नहीं? अरे बताते तो कुछ हम भी मदद कर देते।"


"मां आपका बेटा और बहू दोनों मिलकर इतना कमा लेते हैं कि अपने मां बाप के सपनों को पूरा कर ले। और फिर सरप्राइज नाम की भी कोई चीज होती है।"


सुनकर शारदा जी ने बेटे बहु को सीने से लगा लिया। मन ही मन बहुत खुश हो रही थी कि उसकी सोच गलत साबित हुई। वह बेटे बहू के बारे में जैसा सोच रही थी वैसा नहीं है। समय चाहे तब का हो या अब का अगर हमने अपनी संतान को अच्छे संस्कार दिए हैं तो वह शहर में रहे गांव में।वे अपने संस्कार नहीं भूलते।



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