प्रौढ़ावस्था
प्रौढ़ावस्था
आज शाम मैं पार्क में बैठा था। पास झरने से चुलबुल कुलकुल करके पानी के फँवारे बरस रहें थे। उसकी निरन्तरता काबिल-ए-तारीफ थी, वो चुपचाप बिना किसी लोभ-मोह के निरतर बहे जा रहे थें। आसपास कुछ सुनसान टेबलें और टूटे झूले भी थें ,लगभग सारी बेंच खाली पड़ी थी पर उसके खालीपन महमोहक था, उनकी खालीपन ऐसा था, जैसे वो किसी के इन्तेज़ार में बरसों से उसी रूपरेखा में ,थकी पर आशान्वित पड़ी हो !
टूटे झुले की जर्जर स्थिति ये बयान कर रही थी, गुड्डे-गुड़ियों का य़े समय टूयशऩ जाने का हो चला हैं, जो हर शाम कितनों की उम्मीद पूरा करने निकल जाते होंगे, वो किताबों के बस्ता बोझा उठाकर !
वही एक पछपन साल के दम्पत्ति, एक्शन के जूतें में टहल रहे थें और आपस में बात कर रहे थें!
"अजी ये साड़ी के साथ क्या उजर-उजर जूता पहनने को बोल देते है"(ऑऩ्टी नाक सिकुड़ रही थी)
"अरे भागवान, अपना बेटा क्षितिज ने दिए हैं, तो पहनना तो बनता है ना जीं"(ये कहते समय, एक खुशनुमा चमक थी अजय अंकल की आँखो में)
"पर वो शौर्य ( शौर्य:-पाँच साल का उनका पोता) को भी तो ले गयें ना अपने साथ, आज अगर यहां रहता, तो हम उसे झूला झुलाते ना"! (एक ठिठऱन और एक खोया हुआ एहसास था अपराजिता आंटी के आवाज़ में)
बगल के टूटे झूले की भी आँखे नम हो गयीं, उस दम्पति के भावपूर्ण बातें सूनकर ! वो सब कई महीनों से वीराना पड़े हुए थे।
"चलो जी अब घऱ, शाम ढल रही हैं, मुझे दोपहर की दाल और सब्जी भी गर्म करनी हैं और तुम्हे रोंटियाँ भी गरमा-गरम खिलानी है "।
पता नहीं अपना पोता शौर्य कब आएगा हमसे मिलने !
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