नौकरीपेशा वाली जिदगीं की सच्चाई!!!

नौकरीपेशा वाली जिदगीं की सच्चाई!!!

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इस नौ-छह वर्ग की बारे में मैं आज आपसे बात करना चाहता हूँ। अपितु मैं भी इस भीड़ का एक अभिन्न हिस्सा हूँ!

 

आशावादी, बेबसी, निरसतापन, रुदाली, रूखापन, लालच, असंतोष, गुस्सा, एकांकी जीवन और ना जाने कितनी उथल-पुथल भावनाओं के साथ जीने के कारण इस वर्ग के लोगों ने अपनी मूलभूत आदमियता के भाव को मार डाला है!!

 

इस वर्ग के लोग मुझे जीवित दिखते हुए भी मरे लोथड़े के समान व्यवहार करते नजर आते हैं। या बीते कल में जीते हैं या आने वाले कल में जीते दिखेंगे!!

 

इनकी बातों में एक अलग सी उदासी और खालीपन दिखता है! इन्हें ना आसपास हो रहे उस खुशनुमा बारिश की बूंदों का अहसास होता है, ना चहचहाती चिड़ियों की गुदगुदाहट महसूस होती है, ना ही उगते और डूबते सूर्य की अतुलनीय लालिमा दिखती है!

 

इस श्रेणी के लोग पता नहीं कितनी चाहत दिलों में सजा कर रखते हैं, कि उन्हें बनाने वाले की बुद्धि भी चरमरा जायें। इनसे लाख गुना अच्छी वो बूढ़ी अम्मा हैं, जो कोने में एक सौ बीस केले की टोकरी लिए बैठी रहती हैं, जो केले बिके या ना बिके ,चैन की नींद सोती हैं और हँसते हुए सब दुख स्वीकार लेती हैं। इनकी इच्छाएँ बीस किलो से बढ़कर एक सौ बीस किलो पर भी जाकर खत्म नहीं होती हैं!

 

मुझे इस वर्ग की तुलना “उस चौराहे पे बैठे पागल आदमी" से करने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं होगी, जिसकी खिलखिलाती हँसी, रुदाली करके रोना, या सच्ची भूख की वो तीखी इच्छा, या फिर वो ऊपरवाले से तारतम्यता की बात हो!! हरेक भावनाएँ इनसे लाख गुना वाजिब और भावपूर्ण होती हैं।

 

इस नौ-छह वाले वर्ग पे ना मुझे हँसी आती, ना रोना, हाँ अफसोस जरूर होता हैं, जब यह अपने अंदर के कलाकार को और अपनी स्वाभाविक भावात्मक अधिकारों को कुचल देता है हर क्षण, बस चन्द जरूरतों को पूरा करने के लिए!!!!

 

और सच्चाई ये भी हैं, उन्हें मैं अन्दर से चीखता - चिल्लाता देखा हूँ, उस दौड़ में भागता देखा हूँ जिसकी सीमा अनंत और असंभव हैं।

 

नौकरीपेशा वालों से यही आग्रह है कि आप जिस कलाकार को अपने अन्दर मार रहे हो, वह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है। जीवन्त रहना सीखो आप। आप वो बवाली क्षमता रखते हो, जो समां में हर क्षण खुशियाँ बिखेर सकती है!!

 

"जी भर के दौड़-भाग ले पागल मानव!

आखिरी दरगाह तो वो कब्रगाह ही हैं!"

 

 

 


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