लाल इश्क़
लाल इश्क़
चौबीस अक्टूबर 2013 की शाम के सात बजे थे। प्रेम अपने ऑयली स्किन को 'क्लीन & क्लीयर से जल्दी जल्दी रगड़कर चमकाये जा रहा था। फिर रेगलर की जीन्स और जॉन प्लेयर की शर्ट पहनकर ,आएने के सामने खङे होकर, मन ही मन चवन्नीया मुस्कान की फहवारेेे, शमा में बिखेरे जा रहा था। फिर जल्दी से "फिलॉ" के जूते की लेज बाँधकर अपने रुम से निकला। बाहर बस की हॉर्न बार बार बजे रही थी। वो तेजी से बस की तरफ दौङ और अपनी फेवरट बिन्डो सीट पे बैठ गया। हेडफोन को कान में ठूंसकर " ऱंग शरबतों के तू मीठे घाट का पानी "गाने को रिपिट मोड में
प्ले कर दिया।
अभी पूने एक्सप्रेस को खुलने में पूरे एक घंटे का समय बचा था। प्रेम बस के कोने वाले सीट पे बैठे वाट्सअप पें स्नेहा के सतरंगी इन्द्रधनुष की तरह आते हर 'हरे रंग' के मैसेज से रंगरेज हुए जा रहा था। आज उसे खुद को और स्ऩेह को ,इश्क के दरिया में जो रंगना था। बस के 'स्टेशन चौक' पे पहुचते ही, प्रेम तेजी से स्टेशन की दौङा, दौड़ता भी ना क्यों ,प्रेम की स्नेहा ,दो महीने के लिए उससे दूर मुम्बई जो जा रही थी।
स्नेहा भी पूने राजधानी एक्सप्रेस में बैठी, पहली बार इस गतिमान ट्रेन की और लेट होनी की दुआ "सुरेश प्रभू जी "से कर रही थी। प्रेम हेडफोन में "अभी ना जाओ छोङकर" सॉग लगा प्लेटफॉर्म टिकट वाली कतार में बेचैन खङा था।वो 5 रुपये वाली कागज की टिकट प्रेम के लिए पिया मिलन की चिट्टी साबित होने वाली थी ।
शताब्दी के पायदान पे खङी "स्नेहा" अपनी माँ-बाबू जी से झूठी गुफ्तगु किए जा रही था।तभी प्रेम को डबल टीक के साथ मैसेज आया "कोच न। 3, सीट ऩ 4"।
फिर क्या था ,वो चमकती आँखो के साथ "A3" की तरफ बढ़ने लगा ! वो समय ऐसा था, मानो "पेशवा बाजीराव को अपनी मस्तानी की झलक सालों के बाद होने जा रही हो "।
प्रेम A3 के पास वाले " चाय स्टाल "पें 10 रुपये की कॉफी ली और उसे ब्लैक डॉग वाली महँगी पैग समझ कर धीरे धीरे पीते हुए,निगाहें स्नेहा के हरकतों पे टिकाए था। स्नेहा भी अपने माँ-पापा से बात करने के बहाने बार बार" उङता किस" प्रेम की तरफ रॉकेट की तरह फेंक रही थी ।उस भीङ भाङ प्लेटफार्म पे प्रेम और स्नेहा की बाते बस उन खूबसूरत आँखो सेे हो रही थी। दोनों इश्क के समुदर में इस कदर डूबे जा रहा थे, जैसी मताल वाला खुमार गाँजे पीने के बाद चढ़ता हैं। दोनों की चेहरे पे दिल को गुदगुदाने वाली मुस्कान थी और ट्रेन की और लेट होने की दुआ !स्नेहा बार बार जोर जोर से बॉय बॉय बोल के" प्रेम का ध्यान, उस "ब्लैक डॉग वाली कॉफी" से अपने तरफ खेंचने की कोशिश कर रही थी।
पर मैन वील वी मैन !
काश! प्रेम भी उस "ख़ूबसूरत शताब्दी के सफर "में स्नेहा का हमसफऱ बन पाता !
पर प्रेम की 'पॉकेट की हालत' और 'भारतीय रेल के रूल' उसको ये इज्जात नहीं दे पा रही थी !
'स्नेहा' भी उस सर्द मौसम में शताब्दी एक्सप्रेस की वातानुकुलित हवा को छोङकर अपने कोच के पांवदान पे बैठकर, "प्रेम ठंड़ी हवा का झोंका" वाली कहावत को सही सिद्ध किए जा रही थी ।
खैर ट्रेन खुलने का वक्त हो आया। ट्रेन खुली, प्रेम की क्लिन -क्लियर वाली चेहरे की चमक धीरे धीरे फीकी पङ रही थी और ब्लैक डॉग वाली चाय का नशा भी कम होता जा रहा था। दोनों की आँखे बिना किसी गिलिसीरीन युज किए रूदाली कर बैठा। ट्रेन की गति धीरे धीरे तेज होती गई, प्रेम मिल्खा सिंह की तरह दौड़ने की जद्दोजहद किया ,पर प्लेटफॉर्म का आखिर कोना दोनों के लिए भारत-पाक की बॉडर साबित हुआ। इधर भारी मन से प्रेम वापस लौटा ,उधर स्नेहा थर्ड एसी की सूखी साफ तौलिए को अपने सिसकते आसूँ से भिगों दी। दोनों की इस सेपरेशन की बैचेनी की आग" माउन्ट एवरेस्ट" के शिखऱ पे पहुँच गयी।पर जुदाई भी तो कहीं ना कहीं प्यार को बढाने का एक तरीका होता हैं ! जो प्रेम से दूर जा रही स्नेहा को, दोनों को और करीब ला दिया। और वो वाट्हअप की हरे रंग का रोज का खेल कब लाल इश्क मे बदल गया ! दोनो अन्जान थे इससे !!