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Amit Singh

Classics Romance Comedy

5.0  

Amit Singh

Classics Romance Comedy

प्रौढ़ावस्था

प्रौढ़ावस्था

2 mins
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आज शाम पार्क में बैठा था। पास का झरना चुलबुल कुलकुल करकें पानी के फँवारे बरसा रहा था। उसकी निरन्तरता काबिल-ए-तारीफ थी, वो चुपचाप बिना किसी लोभ के बहे जा रहे थें। आसपास कुछ सुनसान टेबल और टूटे झूले भी थें ,लगभग सारी बेन्चें खाली पड़ी थी पर उसके खालीपन महमोहक था, वो मानों किसी के इन्तेज़ार में बरसों से उसी रूपरेखा में थकी पर आशान्वित पड़ी हो! 
टूटे झुले की जर्जर स्थिति बयान कर रही थी, गुड्डे-गुड़ियों का य़े समय टूयशऩ जाने का हैं, कहीं उम्मीद पूरा कर रहे होंगें वो किताबों के बोझ उठाकर।
दूर एक 50-55 साल की दम्पत्ति एक्शन जूतें में टहल रहे थें, आपस में बात कर रहे थें!
"अजी ये साड़ी के साथ क्या उजर-उजर जूता पहनने को बोल देते है आप"(ऑऩ्टी नाक सिकुड़ रही थी) 
अरे भागवान, अपने बेटे क्षितिज ने दिए हैं, तो पहनना बनता है ना जीं"(खुशनुमा चमक थी अंकल की आँखो में इस बात पें)
"पर वो गोलू (6 साल का उसका पोता) को भी तो ले गयें ना अपने साथ, आज रहता तो हम उसे झूला झुलाते ना"!, (एक ठिठऱन और एक खोया एहसास था उनकी आवाज़ में)
बगल के टूटे झूले को देख आँखे नम हो गयीं ये भावपूर्ण बातें सूनकर!
"चलो अब घऱ, रात हो रही हैं, दोपहर की दाल और सब्जी गर्म करनी हैं और तुम्हे रोंटियाँ भी जो गरमा गरम खानी है "


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