मैं गुलाम हूँ
मैं गुलाम हूँ
देशभक्ति से ओतप्रोत एक समारोह से रात में लौटते हुए बेख्याली में उसकी कार किसी अनजाने रास्ते पर बढ़ने लगी, उसके दिमाग में यह स्वर गूँज रहा था, "शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले..."
तभी उसे सड़क के बीचों-बीच कुछ दूरी पर लकड़ियों का एक ढेर जलता हुआ दिखाई दिया, उसने हड़बड़ाहट में कार रोकी और वहां जाकर देखा। वह एक चिता थी, लेकिन आसपास कोई नहीं था। वह घबरा गया और चिल्लाया, "कोई है..."
एक क्षण की शांति के बाद उसे एक जोशीली आवाज़ सुनाई दी, "मैं हूँ भगत।"
"कौन भगत... कहाँ हो ?"
"सरदार भगत सिंह हूँ, चिता में पड़ा हूँ... अकेला...कोई मेला नहीं है।"
वह और घबरा गया, उसने मरी हुई आवाज़ में कहा , "भगत सिंह! तुम्हें तो... सतलुज के पास जलाया गया था..."
"हाँ ! सारे टुकड़े जल गए, लेकिन दिल की आग ठंडी नहीं हो रही... जहां जाता हूँ, ज़्यादा जल उठता है..."
"क्यों...?"
"पूर्ण स्वराज मिलेगा तब ही मेरी चिता ठंडी होगी।"
"लेकिन हम तो आज़ाद हैं।"
"क्या मेरे भाईयों को अब कोई भय नहीं? क्या हम सब एक हैं? क्या अब हम, सारे अंग्रेजी कपड़े और किताबें जला कर, उनके कैदी नहीं रहे? बोलो तो..."
वह कुछ कहता उससे पहले ही किसी ने उसे झिंझोड़ दिया। वह हड़बड़ा कर जागा। उसने देखा कि वह तो वहीँ समारोह कक्ष में है, उसके पास बैठे हुए मित्र ने उसे जगाया था और खड़े होने का इशारा कर रहा था।
वह किसी भार ढोते श्रमिक की भांति लड़खड़ाता हुआ खड़ा हुआ और टाई ठीक कर अपने मित्र से सुस्त स्वर में पूछा,
"क्या अपनी जमीन पर दूसरों के कदमों का अनुसरण करने वाले लोग आज़ाद कहलाते हैं ?"
मित्र ने अपने होंठों पर अंगुली रख उसे चुप रहने का इशारा किया और राष्ट्रगान के लिए सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया।