अर्धांगिनी
अर्धांगिनी
अपने कार्यालय के वातानुकूलित कक्ष मे बेठै सतीश की दृष्टि मेज पर रखे आमन्त्रण पत्र पर पड़ी। उसकी पत्नी मीरा अपना निजी व्यापार आरम्भ करने वाली थी, जिसका उद्घाटान इस सोमवार को था। वह आमंत्रण पत्र उसी समारोह का था। मीरा और सतीश जिन परिवारो में पले-बढ़े वे एक-दूसरे से पूरी तरह से भिन्न थे। सतीश के परिवार के मुखिया यानि कि उसके पिता ने अपनी संतानो पर कईं तरह की बन्दिशे लगा रखी थी। उन्हे कोई भी निर्णय स्वयं लेने की छूठ नहीं थी। उन के जीवन से सम्बन्धित किसी भी बात पर, चाहे बात उन की शिक्षा की हो या विवाह की; निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ पिताजी को ही था। जब कि मीरा के माता पिता ने उसे हर तरह की छूठ दे रखी थी। मीरा के पिता का वस्त्रों का व्यापार था। व्यापार मे हानि होने के कारण परिवार की आर्थिक दशा खराब हो गयी। सतीश का परिवार सम्पन्न था एवम् उसके सभी रिश्तेदार सरकारी कार्यालयों मे उच्च पदो पर सुशोभित थे। इसी कारण जब मीरा विवाह के पश्चात सतीश के घर आयी तो उसे कुछ खास सम्मान न मिला। पर मीरा में वो गुण थे जो एक आदर्श भारतीय नारी के लिए अनिवार्य थे- सहनशीलता, क्षमा और धैर्य। उसने हर अपमान को सहन कर लिया पर परिवार में किसी के लिए भी मन में मैल न रखा। वह अपने पिता कि व्यापार मे हुई पराजय को अपने कठिन परिश्रम से विजय मे बदलना चाहती थी। श्री धीरूभाई अम्बानी उसके आदर्श थे और वह भी उनकी तरह वाणिज्य की दुनिया मे सफ़लता के शिखर छूना चाहती थी।
अचानक सतीश को उन की शादी की वो पहली रात याद आ गयी। जब सतीश अपने कक्ष मे पहुँचा तो दुल्हन के वस्त्रो मे पंलग पर बैठी मीरा उसकी ड़ायरी पढ़ रही थी। वही ड़ायरी जिस मे वह कथाऐं लिखा करता था जब वह दसवीं कक्षा मे था।
"मुझे नही पता था कि मेरे पतिदेव एक लेखक भी है।" सतीश को देख मीरा ने पंलग से उठते हुए कहा।
"तुम्हें ये ड़ायरी कहाँ से मिली?"
"यहीं आपकी अलमारी मे रखी हुई थी।"
"उसे वापस वहीं रख दो। कहीं पापाजी ने देख लिया तो उन्हें अच्छा नहीं लगेगा।"
"पर ये कहानियाँ तो बहुत अच्छी हें, फ़िर वे क्यों नही पसंद करेंगे?"
"मुझे आज भी वो दिन अच्छी तरह से याद है जब मैं दसवीं कक्षा में था और मुझे कथा रचना प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। मैंने घर आकर ये बात बड़े हि हर्ष के साथ पापाजी को बतायीं तो उन्होने कहा- अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो सतीश और एक अच्छी नौकरी प्राप्त करने का प्रयास करो। तो ही तुम्हें जीवन मे सफल बन सकोगे। चन्द कागज़ों पर कलम चला कर जीवन निर्वाह के लिए धन कमा सकोगे? भविष्य में अपने परिवार का पालन पोषण कर सकोगे? हमारे परिवार के अन्य सदस्यों की तरह सम्मान के पात्र बन सकोगे? ये सब कर के क्या मिलेगा तुम्हें? तुम्हारी रचनायें कुछ पत्र-पत्रिकाओं में छप गईं तब भी एक परिवार का निर्वाह तो न हो पाएगा।"
सतीश ने सिर झुका कर कहा, "बस फिर उसी दिन मैंने पापाजी को वचन दिया कि मैं उनका स्वप्न साकार कर के दिखाउंगा। उसके बाद मैं सिविल सर्विस की पढ़ाई मे जुट गया। मैंने इस ड़ायरी को फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा।"
"आप हत्यारे हैं सतीश!"
मीरा की ये बात सुन कर वह दंग रह गया।
"आपने अपने अंदर के लेखक को मार ड़ाला।"आँखों में आँसू भर कर मीरा ने कहा।
सतीश ने एक ठण्डी आह भरी और सोचा- शायद मीरा सच ही कह रही थी। अब वह अपने आप को ही पहचान नहीं पा रहा था। अब कोई और बन चुका था वह। शायद उसकी आत्मा का एक अंश मृत हो चुका था।
सतीश ने आमन्त्रण पत्र को खोल कर पढ़ा और वापस मेज़ पर रख दिया। वह मीरा को घर-खर्च के लिए जो रूपए दिया करता था उसमे से वह तिनका-तिनका जोड़ कर अपने व्यापार के लिए पूँजी जमा करती रही। और फिर जब एक छोटी रकम जमा हो गयी तो उसने अपनी जान पहचान की कुछ महिलाओं के साथ मिल कर अचार बनाना और बेचना शुरू कर दिया। उसके बनाए अचार के सब कायल थे। धीरे-धीरे जब व्यापार बढ़ा तो उसने अपना छोटा-सा कार्यालय भी खोल लिया। और आने वाले सोमवार को उसकी फैक्ट्री का उद्घाटन है। सचमुच अपने दृढ़-निश्चय और अथक परिश्रम के बल पर उसने अपने पिता की हार को जीत में बदल दिया।
सतीश को अपनी पत्नी पर बड़ा गर्व महसूस हुआ। वह उठा और उसने अपने आप को दर्पण मे देखा। पर उसे उस दर्पण में एक कलेक्टर नहीं बल्कि एक हत्यारा नज़र आया। उसकी आत्मा ने उसे दुत्कार कर कहा, "मीरा बहुत ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है। उसके पास आय का कोई मार्ग भी नहीं था। फिर भी अपने दृढ़-संकल्प के बल पर उसने अपना-सपना पूरा कर लिया। और तुम... तुम कायर हो सतीश। असफलता के डर से तुम ने अपना मार्ग ही बदल लिया। अपने जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा से मुँह मोड़ लिया! तुम्हें लज्जा नहीं आती अपने-आप को मीरा का पति बताते हुए?"
सतीश ने अपनी आँखें कस कर बन्द कर ली। कुछ क्षण पश्चात उसने अपनी आँखें खोली और खोलते ही एक बार फ़िर से कागज़ और कलम उठा लिया। आज बहुत दिनों बाद उसने पहली बार जो लिखा वो अपना इस्तीफा था। इस्तीफा-अपने पिता की, अपने परिवार और समाज की महत्वाकाक्षाओं से, जो वर्षों से उसकी आत्मा पर बोझ बन कर पड़ी हुई थी। इस्तीफा देकर वह सीधे घर गया और अपनी ड़ायरी उठा ली। उसके मन में एक अजीब-सी प्रसन्नता थी जैसै वर्षों से मृत पड़े उसके शरीर के किसी अंग में प्राण वापस आ गए हों। अपनी ड़ायरी के पहले पृष्ठ पर उसने लिखा-
समर्पित - मेरी अर्धांगिनी मीरा को
जो सच्चे अर्थो में मेरी अर्धांगिनी है। जिसकी प्रेरणा से मेरे शरीर के उस अर्धांग में प्राण लोट आए जो वर्षों से मृतप्राय था। वह मेरी इस रचना की प्रेरणा-स्त्रोत है। उसने ही मेरे अंदर के लेखक को पुर्नजीवित किया है। अगर वह मेरी अर्धांगिनी बन मेरे जीवन में न आती तो मैं जीवन भर स्वयं अपनी ही हत्या के पाप का बोझ ढ़ोने पर विवश हो जाता। परन्तु उसकी प्रेरणा ने मेरे निर्वाण का मार्ग प्रदर्शित कर दिया।