परिवार... जिम्मेदारी हर एक की
परिवार... जिम्मेदारी हर एक की
चाय नाश्ते का दौर खत्म हो चुका था। वह बर्तन समेट कर ले जा रही थी। बाकी हम सभी लोग ड्राइंग रूम में पसरे पड़े थे। दमसैराट खेला जाए या अंताक्षरी इसका फैसला नहीं हो पा रहा था। बच्चे दमसैराट खेलना चाहते थे और बड़े अंताक्षरी। इन सब के बीच में ना किसी ने उससे पूछा ना ही उसने अपने विचार रखें। वह तो रसोई में जाकर के बर्तनों को धोकर सूप और स्नेक्स की तैयारी में लग गई थी। सूप स्नेस्क इसलिए कि खेलते खेलते बच्चों को क्या बड़ो को भी थोड़ी देर बाद भूख लग आती है तो अभी एक घंटे बाद की सब की भूख का इंतजाम भी करना था और रात के खाने की तैयारी भी पर वह मुस्कुराती हुई अपने काम में लगी थी। लगभग एक घंटे बाद उसने सूप और स्नैक्स भी सबको परोस दिए उसकी अपनी भुवन मोहिनी मुस्कान के साथ। बच्चे खुश हो रहे थे। बच्चों ने उसे प्यार से थैंक्यू मामी कहा। वह भी "माय प्लेजर बच्चा लोग" कहकर मुस्कान बिखेरती हुई फिर रसोई घर में जाकर खो गई।
कुछ ही देर बाद शायद बच्चों को प्यास लगी तो वह चिल्लाएँ, "मामी पानी"। ऐसा दो तीन बार बुलाने पर भी जब वह नहीं आई और कोई और पानी लेकर आने के लिए हिलने के लिए भी तैयार नहीं हुआ तो मैं बोला, "शायद सुना नहीं होगा। तुम लोग खेलो पानी मैं लाता हूँ"।
मैं रसोई घर में पानी लेने पहुँचा तो वह वहाँ नहीं थी। मैंने पानी लिया बाहर आ गया। मामी जी बुरा सा मुँह बनाकर आँख मटकाते हुए बोली, "नहीं थी ना रसोई में महारानी जी। बहन से बातें कर रही होगीं"। मैं आश्चर्यचकित होकर उन्हें देख रहा था और सोच रहा था कि वह तुम्हारे घर में सुबह से शाम तक काम कर रही है बिना चेहरे पर एक शिकन लाएँ और उसके बारे में ऐसी बातें। प्रत्यक्ष में चेहरे पर बिना किसी भाव के बोला, "अच्छा फोन पर बात कर रही होगी"।
"फोन पर नहीं छत्त पर होंगी। दिन भर के प्रपंच बतिया रही होंगी। जब देखो तब मुँह ही बना रहता है। करती क्या है सारा दिन ? कौन सा ऑफिस जाती हैं कि थक जाती हैं। एक दिन तो सब लोग इकट्ठा हुए हैं। एक दिन ज्यादा काम करना पड़ गया तो क्या", ऐसा बोलकर वह मेरे हाथ से पानी का जग लेकर कमरे में चली गयीं।
रुकिए पहले मैं आपको उसके और अपने बारे में कुछ बता दूँ। मेरी पत्नी अपनी मामी की बहुत लाड़ली है। उसकी मामी को तीन लड़के ही है लड़कियाँ नहीं है। जब मेरी पत्नी की तीनों बहनें (कुल मिलाकर चार) मायके (मेरी पत्नी का मायका और ससुरात एक ही शहर में है) आती है तो एक दिन बच्चों के साथ उनका मामी के घर पर ही गुजरता है। वैसे तो मैं इस पारिवारिक दावत का मजा नहीं उठा पाता हूँ क्योंकि मेरा ऑफिस रहता है। पर इस बार मैं भी इसका हिस्सा हूँ। जब भी मेरा साला कुछ परेशान होता है तो वे मतलब मेरी मामी सास और मामा ससुर मुझे बुलाते हैं उसे समझाने के लिए। इस करोना काल में तो सबके ही व्यापार पर जबरदस्त असर पड़ा है। मेरा साला भी कुछ परेशान था। और वह है हमारे साले साहब की पत्नी, हमारी मामी जी की बहू, जिसे बेटियों, पराई बेटियों (उनकी ननद की बेटियाँ) को बहुत प्यार करने वाली मामी जी ने उसको अपनी इच्छाओं, अपेक्षाओं के बोझ के तले दबा दिया है। सोचता हूँ कि उसका रिश्ता इस घर में करवा कर मैंने कुछ गलत तो नहीं किया।
मैं छत पर गया। वहाँ वह उस दिन की तरह ही चाँद से बातें कर रही थी। अजीब है ना आज फोन के जमाने में भी चाँद से बातें करना। शायद बातें अभी शुरू ही हुई थी। वह बोल रही थी, "दीदी क्या ससुराल हमेशा हमारे लिए पराया ही रहता है ? आज सब लोग आए हैं।आपस में बातें कर रहे हैं, खेल रहे हैं, पर मुझे किसी ने साथ बैठने के लिए नहीं कहा। यह भी मेरी जरा भी नहीं सुनते हैं। मैं कहती हूँ यह दिन थोड़े खराब है पर गुजर जाएंगे। पर यह सोच सोच कर अपना बीपी बढ़ा लेते हैं। शायद मैं नौकरी नहीं करती हूँ इसलिए मेरी, मेरी बातों की अहमियत नहीं है। ये कहते हैं मैं मर गया तो तुम लोगों को फिर भी बीमा के पैसे तो मिल जाएंगे। अब वह सुबकते हुए कह रही थी, "मैंने कितनी बार कहा मुझे पैसे नहीं आप चाहिए, आपका साथ चाहिए। मैं आपके साथ दो रोटी खा कर रह लूंगी"। (फिर हाथों पर कुछ गिनती हुई बोली) नहीं नहीं, दीदी दो नहीं सात रोटी, दो सुबह, दो दोपहर और तीन रात को। सारा दिन काम करती हूँ ना तो भूख लगती है ना। पर मैं सूखी रोटी खा लूंगी, नमक से। दाल सब्जी भी नहीं चाहिए"।
पता नहीं क्यों पर मेरी आँखों से शायद आँसू बह रहे थे। मैंने माहौल को हल्का करने की कोशिश करते हुए कहा, "सूखी रोटी क्यों खाओगी ? लहसुन मिर्च का नमक पीस लेना। लहसुन में अपने खेत से ला दूंगा"।
वह अचकचा गई। पीछे घूम कर देखते हुए बोली, "दा... अरे जीजू आप... ऐसा कहकर साड़ी का पल्लू सिर पर रखने लगी। मेरा दिल भर आया। यह वही छोटी सी रिंकी है जो हमेशा मेरे गले में हाथ डाल कर लटक जाती थी कि दादा झूला झुलाओ और आज मुझे दादा भी नहीं कह सकती। मुझसे पर्दा कर रही है। क्या मुझ पर इसका इतना भी अधिकार नहीं रहा?
मैं रिंकी की बुआ के लड़के का दोस्त हूँ। उसके परिवार को बचपन से जानता हूँ। रिंकी भी अपनी बुआ की बहुत लाडली थी तो उसका ज्यादातर समय बुआ के घर में ही बीता, हमारे साथ खेलते खाते। बचपन के साथ ही पढ़ाई, स्कूल, कॉलेज फिर उसका बुआ के यहाँ आना जाना थोड़ा कम हो गया और मेरा उससे मिलना भी। यह लड़कियाँ भी ना कितनी जल्दी बड़ी हो जाती है। कुछ सालों बाद जब मेरे दोस्त के घर पर रामायण और उसके भाई के बेटे का मुंडन था तब वह वापस मिली। तब तक मेरी शादी भी हो चुकी थी। मेरी पत्नी भी मेरे साथ थी। यहाँ वहाँ भागती दौड़ती, काम संभालती, रामायण के लिए संपुट लिखती, भगवान की फोटो सजाती और बीच-बीच में ढोलक पर थाप दे कर चार पाँच भजन भी गा लेती, कुल मिलाकर यह कि यह चहकती फुदकती सोनचिरैया मेरी पत्नी को अपने भाई, अपनी मामी के बेटे के लिए बहुत पसंद आ गई।
उस रात जब मैं गद्दे डलवाने छत पर गया था। वह छत पर खड़ी होकर चाँद से बातें कर रही थी।
मैंने कहा, "बिटिया इतनी बड़ी हो गई है कि चाँद से किसी को संदेशा भेजा जा रहा है"।
वह अपनी जीभ को दातों से छूकर दबाते हुए बोली, "क्या दादा आप भी ना ! दीदी से बातें कर रही हूँ"।
मैंने पूछा, "कहाँ है तुम्हारी दीदी ? उनकी तो शादी हो गई है ना"।
वह सिर झुका कर बोली, "हाँ वही तो, दीदी की शादी हो गई है। वह भी इतनी दूर हुई है कि फोन करने में बहुत पैसे लगते है"।
"तो पत्र लिख दिया करो" मैं बोला।
"दादा पत्र बहुत दिन बाद पहुँचता है। ऐसे यहाँ चाँद को बोला, वहाँ दीदी तक बात पहुँच जाती है", वह इस विश्वास के साथ बोली मानो उसकी बाते उसकी बहन तक पहुँच ही जाती है।।
मैंने प्यार से उसके सिर पर चपत लगाते हुए कहा, "चल पागल लड़की ! अच्छा तुम्हारी शादी हम यहीं पास में ही करेंगे"।
वह खुशी से चहकते हुए बोली, "हाँ दादा मुझे दूर मत भेजना"। ऐसा कहकर वह मेरे गले से लटक गयी, "दादा झूला झूलाओ"।
मैं बोला, "पागल अब तू बड़ी हो गई है और भारी भी। छोड़ मुझे मेरी गरदन टूट जायेंगी।"
वह शरमाते हुए हट गई। यह वही लड़की है जो आज मुझसे पर्दा कर रही है।
वह वहाँ छत पर मुझे देखकर सकुचा गई थी फिर बोली दा.. जीजू अरे नहीं नहीं आपके यहाँ का लहसुन नहीं। बहुत छोटा होता है मेरे नाखून दुखः जाते हैं"।
मैंने उसके हाथों की तरफ देखा। मैं हमेशा उसके हाथों को देख कर बोलता था, "बिटिया तुम यह बहुत अच्छा की हो कि नाखून बड़े बड़े रखी हो। कोई तुमको परेशान किया तो उसका पाव किलो मांस तो तुम अपने नाखूनों से नोच ही लोगी। और अभी उसके नाखून पूरे घिसे हुए थे, शायद बर्तन माँज माँज कर।
मैं कुछ बोल नहीं पाया। फिर मैंने कहा, "जीजू से पहले तेरा दादा हूँ। तू दादा ही बोला कर"।
वह ऑखों में भर आएँ आँसुओं को छुपा कर बोली, "शादी के बाद सब बदल जाता है। आपकी पसंद नापसंद मायने नहीं रखती। यहां सबको मेरा आपको दादा कहना पसंद नहीं है"। फिर मुस्कुराते हुए बोली, "क्या फर्क पड़ता है ? जीजू कहूँ या दादा, रहोगे तो आप मेरे दादा ही"।
मैंने कहा, "अब तो मोबाइल का जमाना आ गया है। अब तो तुम अपनी बहन से जब चाहो तब बात कर सकती हो। अब चाँद की क्या जरूरत है" ?
वह सिर झुका कर बोली, "हर बात तो हम हर किसी के साथ साझा नहीं कर सकते हैं ना और चाँद के साथ साझा करने से मन भी हल्का हो जाता है और किसी को पता भी नहीं चलता है"।
मैं सोच रहा था यह कैसा पति पत्नी का रिश्ता है। जहाँ मन की बातें साझा करने के लिए उसे आज भी बहन का या चाँद का सहारा लेना पड़ता है। हम इंसान भी ना, जहाँ सुंदर कलियाँ दिखी उन्हें चुनकर उनको आसपास अपने प्रिय को उपहार में देने के लिए चुन लेते हैं। यह सोचे समझे बगैर कि वह गुलदस्ता इन कलियों के लायक है भी या नहीं। और यह नन्ही कलियाँ अपेक्षाओं के बोझ तले समय से पहले ही टूट कर बिखर जाती है। कौन कहता है, सती प्रथा बंद हो गई है यह नन्ही कलियां हर रोज मरती है अपने अरमानों की आँच में तिल तिल कर।
मैं उसके सिर पर हाथ फेर कर धीरे से नीचे आ गया, यह सोचते हुए कि इस बार अपने साले को समझाते वक्त मैं यह भी कहुँगा कि माँ का लाड़ला बेटा होना अच्छी बात है। बहुत अच्छे बेटे, बहुत अच्छे भाई के साथ साथ अच्छे पति भी बनो। तुम्हारे परिवार में उसे सिर्फ कामवाली सा नहीं घर के सदस्य सा व्यवहार करो। जब सब खेल रहे हैं, मिलकर बात कर रहे हैं तो उसका अकेले किचन में खटना गलत है। परिवार के लोग साथ बैठकर खेलते खाते हैं तो उन्हें काम भी मिलजुल कर करवाना चाहिए।
यह एक प्रसिद्ध पिक्चर से आलोक नाथ जी का प्रसिद्ध संवाद है "ए फैमिली प्रे टूगेदर, ईट टुगेदर, स्टे टुगेदर" (मतलब कि परिवार के लोग साथ में पूजा करते हैं, खाना खाते है और साथ रहते है)
इस संवाद को मैं थोड़ा बढ़ाना चाहूँगी, "शुड कुक टुगेदर एंड वर्क टुगेदर" ( मतलब उन्हें साथ में मिलकर खाना भी बनवाना चाहिए और काम भी करवाना चाहिए)
