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Prafulla Kumar Tripathi

Drama Others

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Prafulla Kumar Tripathi

Drama Others

अपने अपने देवदास !

अपने अपने देवदास !

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जब  आदम और  हव्वा ने आपस में  प्यार और संसर्ग का  स्वाद पहली बार चखा  होगा  तो  उन्होंने इस बात की रंच मात्र  भी  कल्पना नहीं  की होगी  कि उनके बीच आगे चलकर घर - गृहस्थी के घनचक्कर भी आएंगे, स्वाद को सुस्वाद में बदलने की लिप्सा उत्पन्न होगी, अनुशासन को तोड़कर शारीरिक समर्पक बना लेने का चलन आयेगा। इतना ही नहीं उन दोनों के जीवन में परिवार और समाज प्रथा तो चलन में आ जायेगी लेकिन फिर भी हर किसी का अपना अपना देवदास बनेगा और हर किसी के मन जीवन में एक न एक दिन पारो का अवतरण होगा। लेकिन ये देवदास और पारो उच्च और मध्यम वर्गीय परिवार में उत्पन्न होंगे और संसाधन विहीन के जीवन में तो वे क्षण ही अक्सर नहीं आने पायेगा जब वे प्यार और संसर्ग के स्वाद को चख सकें ..महसूस कर सकें !

असल में सेक्स का हौवा निम्न वर्गीय परिवार और समाज में उतना मायने नहीं रखता है जितना मध्यम और उच्च वर्ग में। अब रधिया  को ही ले लीजिये, तेरह - चौदह साल की  हुई होगी कि मजबूरी में उसके माँ- बाप ने उसे खेत में काम करने के लिए भेजना शुरू कर दिया था। उसके लिए कब उसकी जवानी के दिन आये, कब उसके कौमार्य का आगमन हुआ और कब उसकी विदाई भी हो गई इस बात का उसे पता ही नहीं चला। हाँ, उसे  उसके उभरते  यौवन को देखकर गाँव  के लड़कों की अर्थ भरी  मुस्कान और निमन्त्रण पर गर्व और  गुमान की अनुभूति अवश्य हुआ करती थी। आजादी  के  बाद देश के  गाँव  में  और कोई  चीज़ पहुंची हो या नहीं  लेकिन किस तरह प्राकृतिक जड़ी बूटियों से, तनिक सी सावधानी से अपने मासिक लाइसेंस को युवतियां रिन्यू कराती रहें इस जुगाड़ की पहुँच घर घर तक हो चली थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक सीमांत गाँव में पैदा होकर दिल्ली में पढ़ाई लिखाई करके बिहार में अपनी जवानी खपाने वाले  प्रोफ़ेसर दवे इन  दिनों बीते  लम्हों  की जुगाली करते - रहते  हैं और उनका  गाँव - देस उनकी आँखों के आगे नाचने लगता है।  ऐसा  लगता  है मानो वे किसी टाइम मशीन पर सवार होकर उन बीते लम्हों में खो गए हों !

वे अभी बीती दुनिया का चक्कर लगा ही रहे थे कि तभी डोर बेल बजी।

"आओ आओ, शंकर ! बहुत दिन बात आना हुआ।" दवे साहब अपने पुराने यार को देखकर खिलखिला उठे।

"हाँ, यार ! असल में तुम्हारे बेटे प्रशांत के बारे में सुनकर बहुत दुःख हुआ लेकिन चाहकर भी जल्दी नहीं आ सका क्योंकि अभी पिछले महीने ही मैंने अपने हार्ट की बाई पास सर्जरी कराई है इसलिए आना जाना थोड़ा प्रतिबंधित हो चला है।".. शंकर साहब सोफे पर बैठ चुके थे।

"अरे, भाभी जी नहीं दिखाई दे रही हैं ? " शंकर साहब ने कुमकुम जी के बारे में अपनी उत्सुकता जगाई।

" अरे यार ! वे कल ही वापस पांडिचेरी चली गईं ..अरे भाई वे अभी सर्विस में है और जानते ही हो कि भला कितने दिन तक वे यहाँ पड़ी रहतीं ? " दवे साहब ने उत्तर दिया।

चाय-पान के बाद जाने क्या सूझी कि दवे साहब ने उन अपने कामं फ्रेंड सान्याल साहब का किस्सा आगे बढ़ाने लगे। शंकर साहब भी सान्याल की शौकिया आदतों से अच्छी तरह परिचित थे।

असल में दवे साहब जब  दिल्ली आये और अपनी पढ़ाई के अंतिम चरण में थे तो उनकी मुलाक़ात आवाज़ की दुनिया के ढेर सारे लोगों से भी हुई। भोर में सुबह  से  देर रात  तक प्रसारित होने वाले उन  दिनों के रेडियो की आवाज़ जितनी अच्छी और मनोरंजक लगती थी उससे कहीं ज्यादा उनको स्टूडियो के माइक्रोफोन और साउंड प्रूफ चश्मदीद दीवारों के आगे - पीछे की घटनाओं को सुनने  में मनोरंजक लगा करती  थी। अब चाहे वह उनके निकट के मित्र सान्याल की कहानी हो, इदरीस की हो, नाथानी की या किश्वर की। और हाँ,  उन मधुकर का तो नाम तो छूट ही गया था  जिन्होंने एक चीफ  मिनिस्टर  साहब की रखैल को अपनी  हमसफ़र बना लेने के प्रस्ताव को आए बढ़ कर स्वीकार कर लिया था क्योंकि उन सी.एम्.साहब ने अपने प्रभाव से ही उनको डाईरेक्टर जेनरल तक के ओहदे पर पहुंचा डाला था। यह दौर था सत्तर से अस्सी के दशक का जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक  सिर्फ एक, सिर्फ एक ही  पार्टी की तूती बोलती थी और उससे जुड़े लोग और उनके लग्गू - भग्गू जो चाहते थे वे काम कर लिया करते थे।

पार्लियामेंट स्ट्रीट की  उस बड़ी बिल्डिंग में पूरे एक साल हो गए हैं सान्याल को आये हुए। सरकारी नौकरी कैसे की जाती है यदि इस रहस्य को जानना हो तो कोई सान्याल से सीखे। उन दिनों मल्टी - नेशनल  कम्पनियां नहीं आई थीं। जो एक बार सरकारी नौकरी में घुस गया उसको 58 साल का अभयदान मिला जाया करता था। और हाँ, एक तीखा सच  यह भी कि उस दौर में सरकारी दफ्तरों  का  कोई सर्व मान्य  कल्चर भी स्थापित  नहीं हो पाया था। बड़ी कुर्सी पर बिराजमान या उसे  सम्भालने वाले साहब ही उस ऑफिस के कल्चर का मापदंड तय किया करते थे। एक बात या नियम जो किसी ' अपने ख़ास ' के लिए  मान्य होता वही  बात  या नियम दूसरे के लिए अमान्य  हो जाया करती थी। सुविधा शुल्क और गिफ्ट कल्चर तो शीर्ष पर था।

हाँ, तो ये जो सान्याल नाम का जो मेरा अधिकारी दोस्त मिला था उसे अजीब शौक थे। उसके चेहरे से, उसके बाडी लंग्वेज़ से उसके मन की थाह पाना बहुत मुश्किल था। कहने को तो वह सितार का महान कलाकार था , अंग्रेजी नावल का बेहद शौकीन भी। खूब भलो, बाबू मोशाय ......लेकिन जब उसको अंगूर की बेटी मिल जाया करती थीं तो वह बहुत कुछ बदल जाया करता था। पूरी बोतल गटक जाया करता था और फिर भी उसका हाहाकारी पेट नहीं भरता था।

जाने उसके  घर  की  क्या और कैसी परिस्थितियाँ  थीं  कि वह  जहां  भी  पोस्टेड  रहा ..क्या गोरखपुर,  क्या सिलचार .... क्या मुम्बई ..... अपनी पत्नी और एकमात्र बिटिया  को पास नहीं फटकने दिया। उसको हर शनिवार गोमती एक्सप्रेस पकड़नी होती थी जिससे  वह देर रात लखनऊ अवश्य पहुँच जाए। उस  दिन भी शनिवार ही था और मैंने विस्मृत ही कर दिया था कि आज तो अपने देवदास अपनी पारो के पास जाने वाले होंगे। फर्स्ट फ्लोर के उसके कमरे में जब  मैं  पहुंचा तो एक सुन्दर युवती उसकी कुर्सी  के करीब  खड़ी होकर लगभग शरीर  की स्पर्शावस्था में  कुछ  बातें  किये जा रही थी। सुंदर हंसमुख चेहरा, लो कट कुर्ता, होठों पर हल्की  लिपस्टिक  और आँखों में  मानो अजीब सा नशा ! उन दोनों ने मेरे इस अप्रत्याशित घुसपैठ से से क्या और कैसा महसूस किया नहीं जानता, लेकिन तो मैंने पहली बार अपने आपको कुछ असहज महसूस किया।

'हेलो ! के.के. !"  सान्याल तपाक से अपनी कुर्सी से उठा और मेरे आगे हाथ बढ़ा दिया।

"हेलो !" बोलते हुए मैंने भी अपनी आदत के अनुसार अभिवादन के लिए पहले नमस्कार किया और फिर हाथ मिलाया।

"यार ! आज तो मुझे लखनऊ निकलना है ..बताकर तो आता !...चलो ..कोई बात नहीं।" सान्याल उस कन्या को विदा करते हुए मुखातिब हुआ।

"ओह ! यार, मैं ठहरा कुंआरा...और तुम जैसे कुछ लोगों का फालतू दोस्त। मैं  तो  भूल  ही गया था कि आज तुम्हें निकलना है। मैंने  तपाक  से उत्तर दिया।

सान्याल के ऊपर मानो अभी - अभी कुछ लमहे  पहले मिले स्पर्श सुख और साहचर्य का नशा चढ़ चुका था ...और .. और वह अभी उसकी तन्द्रा से भंग नहीं होना चाहता था।

"यार, जो सुख दारु और  औरत  में  है  वह  सुख दुनिया  की किसी  भी चीज़ में नहीं है ...और.. और तुम  क्या  जानो ब्रम्हचारी महाराज ! " सान्याल ने बेहयाई से अपने मन की बात उगल दी। के.के.  उर्फ़   प्रोफेसर के.के. दवे  भी मानो उस दौर में  डूबते  चले  गए  थे।

दिल्ली के महंगे इलाके के हौज ख़ास का वह कोना प्रोफेसर दवे और उनके लंगोटिया यार शंकर  की इस  हँसी- ठिठोली से चहक उठा, गुलज़ार हो उठा था और वे दोनों अपने वर्तमान को  लगभग भूल ही चुके थे।  लंच  का  समय  हो चला  था और अचानक शंकर घर जाने के लिए उठ खड़े हुए।

"अच्छा, के.के.  चलता हूँ,  फिर  कभी आऊंगा ..और ....और उस ' नॉटी ' सान्याल और उसकी  शरारतों को रोक कर रखियेगा। मिलते  हैं  तुमसे एक छोटे से ब्रेक के बाद ! " 



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