तेरी मेरी दुनिया
तेरी मेरी दुनिया
मैं उस सीट को निहारे जा रहा था जहाँ सोनम बैठती थी। मेरे दोस्त राकेश ने टोक दिया।
"अब सीट को क्या घूरे जा रहे हो ? उसकी शादी हो गई। अब वह ऑफ़िस भी नहीं आएगी। जब कहना था तब कुछ बोल नहीं पाए।"
राकेश सही कह रहा था। इतने दिनों से मैं मन ही मन सोनम को चाहता रहा। पर कुछ कह नहीं पाया। जब भी मैंने अपने मन की बात कहने के बारे में सोंचा तो ज़बान जैसे तालू से चिपक जाती। हिम्मत जवाब दे जाती।
मेरी और उसकी दुनिया में बहुत फर्क था। उसकी दुनिया बेफिक्री से भरी हुई थी। पिता के पास एक नामी पेंट कंपनी की डीलरशिप थी। वह उनकी इकलौती संतान थी। जॉब वह बस टाइमपास के लिए करती थी। सैलरी हाथ में आते ही दिल खोल कर खर्च करती थी। क्योंकि बाद में तो हर ज़रूरत के लिए उसके पापा थे। फ़िक्र करने की उसे कोई ज़रूरत भी नहीं थी। पर मैंने महसूस किया था कि स्वभाव से ही बेफिक्री थी वह।
मेरी दुनिया उसकी दुनिया से ठीक उलट थी। मेरी आवश्यक्ताओं को पूरा करने वाले मेरे पिता कच्ची उम्र में ही मुझे छोड़ कर परलोक चले गए थे। माँ ने एक ज्वैलरी स्टोर में सेल्सगर्ल का काम कर बड़ी मुश्किल से मुझे इस मुकाम तक पहुँचाया था। आने वाले कल की चिंता तो जैसे मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुकी थी। मैं अपनी सैलरी की एक एक पाई सोच समझ कर खर्च करता था।
हमारी दुनिया अलग होते हुए भी मैं पहली नज़र में ही उसे चाहने लगा था। दिल के पास दुनियादारी की समझ नहीं होती है। या यूं कहें कि दो विपरीत चीज़ों के बीच अधिक आकर्षण होता है। मेरा सोनम के लिए आकर्षण इसी कारण था।
यह बात ठीक थी कि वह बेहद खूबसूरत थी। लेकिन जिस बात ने मुझे उसकी तरफ खींचा वह थी उसकी बेफिक्री। आने वाले भविष्य की चिंता तो उसे थी ही नहीं। पर इस बात की फ़िक्र भी कम ही करती थी कि कोई उसके बारे में क्या सोंचेगा। वह बस अपने हिसाब से जीती थी। ऑफ़िस पॉलिटिक्स के बारे में ना सोच कर सबसे खुल कर बातें करती थी। कभी बॉस कोई काम देते तो हमारी तरह यह सोच कर परेशान नहीं होती थी कि अगर कोई ग़लती हो गई तो कहीं बॉस नाराज़ ना हो जाएं। वह बस मन लगा कर काम करती थी।
मैं तो पहली बार में ही अपना दिल हार बैठा था। हमारे बीच बातचीत भी होती थी। लेकिन दोस्ती उस दिन शुरू हुई जब मेरे जन्मदिन पर वह मुझे अपने साथ एक रेस्त्रां में ले गई। कंपनी का नियम था कि जिस भी कर्मचारी का जन्मदिन हो ऑफ़िस आने पर उसे एक बुके और गिफ्ट दिया जाता था। मुझे भी मिला। सबने विश करने की रस्म निभाई। लेकिन सोनम ने पूरी गर्मजोशी के साथ मुझे विश किया। शाम को जब मैं ऑफ़िस से निकल रहा था तब वह मेरे पास आकर बोली।
"क्यों पार्टी के लिए निमंत्रण नहीं दोगे ?"
"मैं जन्मदिन नहीं मनाता हूँ।"
"अच्छा... पर मैं तो धूमधाम से मनाती हूँ। जब होगा तो तुम्हें ज़रूर बुलाऊँगी।"
मैंने बस मुस्कुरा दिया। उसने अचानक मेरा हाथ पकड़ कर कहा।
"चलो मेरे साथ।"
उसके इस तरह हाथ पकड़ लेने से मैं झिझक गया।
"कहाँ ??"
"तुम्हारा जन्मदिन मनाने।"
कह कर वह मुझे नीचे पार्किंग में ले गई। वहाँ उसका ड्राइवर कार लेकर मौजूद था। उसने उसे घर चले जाने को कहा। फिर मेरी तरफ घूम कर बोली।
"खड़े क्यों हो बाइक निकालो।"
मैंने बाइक निकाली। वह पीछे बैठ गई। मुझे शहर के एक महंगे रेस्त्रां में चलने को कहा। रेस्त्रां का नाम सुन कर मैं सोच में पड़ गया। हिसाब लगाने लगा कि बटुए में कितने पैसे हैं। कितना बिल आ सकता है। पर मैं मना करने की स्थिति में भी नहीं था।
हम दोनों रेस्त्रां में एक टेबल पर जाकर बैठ गए। मुझे बैठा कर वह मैनेजर के केबिन में चली गई। कुछ देर में लौटी तो मैंने पूछा।
"क्या काम था मैनेजर से ?"
वह बस मुस्कुरा दी। कुछ देर में एक बड़ा सा केक हमारी टेबल पर आया।
"चलो बर्थडे ब्वॉय केक काटो।"
केक काटते हुए भी मेरे मन में बस यही था कि पता नहीं बिल में इसका कितना चार्ज करें। केक कटने के बाद उसने खाना आर्डर किया। खाने का इंतज़ार करते हुए वह बोली।
"तुम सोच रहे होगे कि यह लड़की भी अजीब है। सब अपनी मर्ज़ी से कर रही है। मुझे ज़बरदस्ती यहाँ ले आई। केक मंगा लिया। खाना भी खुद ही ऑर्डर कर दिया।"
उसने रुक कर मेरे चेहरे को ध्यान से देखा। जैसे चेहरे से मेरा मन पढ़ना चाहती हो। वैसे मेरा मन उसने सही पढ़ा था। मैं सचमुच वही सोच रहा था।
"मैं जबसे ऑफ़िस में आई हूँ तुम्हें देख रही हूँ। तुम कुछ दबे दबे से, संकोच में रहते हो। अपने मन की बात खुल कर नहीं कह पाते। ऐसा लगता है जैसे हर वक्त तुम किसी फ़िक्र में रहते हो।"
मैं दंग था कि सोनम ने कितनी गहराई से मुझे परखा था। बात सच थी। मैं शायद कभी अपने आप से भी नहीं खुल पाया था। पिता के जाने के बाद हर कोई बस यही नसीहत देता था। माँ की परेशानी समझो। सब तुम्हें ही करना है। ऐसा नहीं था कि माँ की तकलीफ़ से मैं बेपरवाह था। या खुद जीवन में आगे नहीं बढ़ना चाहता था। लेकिन सबकी नसीहतों के दबाव ने मुझे दब्बू बना दिया था। मैंने खुल कर जीना ही छोड़ दिया था। सोनम की बात सही थी पर मैं कुछ नहीं कह सका। उसने ही बात आगे बढ़ाई।
"ऑफ़िस में सब कहते हैं कि यह अमीर है। इसे क्या चिंता। हाँ मेरे पापा के पास पैसा है। वह मुझे हर तरह की सुविधा देते है। लेकिन मैं खुश रहती हूँ क्योंकि मुझे खुश रहना है ना कि इसलिए कि मैं अमीर हूँ।"
सोनम की इस बात ने मेरे मन में हलचल मचा दी। सचमुच खुश रहना ना रहना, ज़िंदगी को खुल कर जीना सब हमारे हाथ में है। क्यों मैंने आज तक अपना जन्मदिन नहीं मनाया। क्या हम एक छोटा सा केक भी नहीं ख़रीद सकते थे। कर सकते थे। पर मेरे और मेरी माँ के मन में एक बात ना जाने क्यों बैठ गई थी कि हम हालात के मारे हैं। बस एक सोच ने हमें जकड़ रखा था। आज भी जब सोनम मुझे यहाँ लाई तो मैं उसी सोच में जकड़ा था। मेरे बटुए में बहुत पैसे नहीं थे। पर मेरे पास क्रेडिट कार्ड था। फिर भी मैं जिसे मन ही मन प्यार करता था उसे खुल कर ट्रीट भी नहीं दे पा रहा था।
खाना आया तो मैंने बिना बिल की फ़िक्र किए पूरे मन से खाया। खाने के बाद डिज़र्ट में कुल्फी भी मंगाई। ना जाने कितने दिनों के बाद या यूं कहूँ कि पहली बार मैं खुल कर कुछ कर रहा था। रेस्त्रां से निकलते हुए सोनम ने बहुत मना किया पर पैसे मैंने अपने क्रेडिट कार्ड से दिए। यही नहीं मैंने अपनी माँ के लिए भी खाना पैक करवाया।
उस दिन के बाद मैंने अपने मन में बसे उस डरपोक दब्बू को बाहर निकाल दिया। मैं अब खुल कर जीना सीखने लगा। मैंने महसूस किया कि इसके लिए हर बार क्रेडिट कार्ड काम आए ज़रूरी नहीं। कई छोटी छोटी ख़ुशियाँ तो बस नज़रिया बदल कर ही मिल जाती हैं।
मैं अब सोनम को और अधिक चाहने लगा था। राकेश मेरे मन की बात जानता था। वह अक्सर कहता था कि अगर प्यार करते हो तो कहते क्यों नहीं। ऐसा ना हो कि तुम बस देखते रह जाओ और वह किसी और से शादी कर ले।
मैंने भी कई बार मन बनाया कि आज उसे अपने प्यार के बारे में बता कर रहूँगा। पर मौका मिलने पर कह नहीं पाता था। मैंने इस पर विचार किया। क्यों मैं उससे अपने मन की बात नहीं कह पा रहा हूँ। क्या मैं उसके इंकार से डरता हूँ। या कुछ और है।
बहुत सोच कर मैं नतीजे पर पहुँच ही गया। मैं उसके इंकार से डरता नहीं था। वह इंकार कर देती तो भी मैं टूटता नहीं। पर मेरा मन बार बार मुझसे पूछ रहा था कि यदि वह मान गई तो तुम उसे क्या दे पाओगे। मैं यह समझ गया था कि खुल कर जीने के लिए पैसा उतना ज़रूरी नहीं है। पर पैसा जीवन के लिए ज़रूरी है यह भी जानता था।
मैंने अपना नज़रिया बदला था पर मेरी आर्थिक स्थिति वैसी ही थी। मेरे पास अपना मकान नहीं था। बैंक में कोई खास बचत भी नहीं थी। मेरी आर्थिक स्थिति सुधरने में समय लगने वाला था। जबकी सोनम किसी और से शादी कर यह सब पा सकती थी। अगर हर समय भविष्य की चिंता में नहीं घुलना चाहिए तो उसके बारे में पूरी तरह लापरवाह भी नहीं होना चाहिए। मैंने सोचा आज यदि सोनम मुझसे शादी कर ले पर अगर कल मैं उसकी ज़रूरतें पूरी नहीं कर सका तो। रिश्ता कड़वाहट से समाप्त हो इससे अच्छा कि शुरू ही ना हो।
मैंने सोनम से कभी अपने प्यार का इज़हार नहीं किया। सोनम की शादी किसी और से हो गई। वह ऑफ़िस से चली गई।
पर मुझे लगता है कि मेरा फैसला सही था।