बिड़ला विद्या मंदिर नैनीताल ११
बिड़ला विद्या मंदिर नैनीताल ११
नैनीताल में अधिक ठंड की वजह से १० दिसम्बर से १० मार्च तक बिड़ला स्कूल की सर्दियों की छुटटियाँ होती थी, जबकि हाई स्कूल व इंटरमीडिएट क्लासेस के बोर्ड के पेपर १० मार्च के आस पास ही शुरू होते थे, अतः इन क्लासेस के छात्रों की उन छुटटियों के समय पढ़ाई बहुत जरूरी थी और ठंड की वजह से नैनीताल में पढ़ाई संभव नहीं थी।
अतः स्कूल मैनजमेंट ने उसके लिए वैकल्पिक व्यवस्था कर रखी थी। 10 व 12 क्लासेस के छात्रों के लिए जनवरी व फरवरी दो माह के लिए बिरला कैम्प, मोती महल, लखनऊ में लगता था।
दसवीं व बारहवीं कक्षाओं को पढ़ाने के लिए सीनियर्स के कुछ ही अध्यापक (गुरुजन) वहाँ भेजे जाते थे। वो गुरुजन अपने परिवारों को भी वहाँ साथ में ले जा सकते थे। उन सभी के रहने व खाने की व्यवस्था भी वहीं रहती थी।
जूनियर्स के गुरुजन व सीनियर्स के बाकी गुरुजन नैनीताल में ही भीषण सर्दी में भी वहीं अपने अपने अलौटेड आवास में ही रहते थे। वहीं के रहने वाले होने की वजह से उनके लिए यह एक सामान्य बात थी।
१९७३ जनवरी व फरवरी दो माह दसवीं क्लास के छात्र के बतौर हम भी वहाँ रहे।
मोती महल, हज़रतगंज के पास राणा प्रताप मार्ग पर बहुत बड़े प्रांगन में है। मोती महल के बारे में छात्रों को कोई ज्यादा जानकारी नहीं थी। गेट के अन्दर दोनों तरफ फूलों के बहुत बड़े बड़े गार्डन थे। गेट के ठीक सामने लगभग १०० मीटर की पक्की सड़क के बाद मोती महल का ऑफिस व वहाँ के मैनजमैंट के दो लोगों का रैसिडैंस था।
दायें हाथ पर हॉस्टल था, जिसमें ही हम लोगों के रहने की व्यवस्था थी।
हॉस्टल के सैकन्ड फ्लोर पर बारहवीं और थर्ड फ्लोर पर दसवीं क्लास के छात्रों की पढाई व रहने की व्यवस्था थी। हर फ्लोर पर लगभग २५ कमरें और कुछ हॉल जहाँ क्लासेज लगती थी।
हर कमरे में दो बच्चे रहते थे। वहाँ पहली बार लकड़ी के तख्त (लकड़ी के पट्टो की चौकी) पर सोये। गद्दा जरूर बीच में था. टॉयलेट कॅामन थे। ग्राउंड फ्लोर पर बैडमिन्टन, वॉली बाल आदि खेलने की सुविधा भी थी।
मोती महल में देर रात तक पढ़ना एलाउड था, जबकि नैनिताल में जूनियर्स में सोने का समय ९ बजे निर्धारित था व् सीनियर्स में १० बजे का। यह नियम बिड़ला छोड़ने के बाद भी हमने अपने ऊपर लागू रखे और वहाँ के पढ़े हुए छात्र आज भी अपने बच्चों पर इसे थोपने की नाकाम कोशिश करते हैं।
सभी के लिए खाने की मैस थर्ड फ्लोर पर थी। खाना नैनीताल से कुछ अच्छा मिलता था। शायद कम बच्चे होने की वजह से, कुक लोग अच्छा बना पाते हों। राजमा खाना हमने नैनीताल में ही सीखा, तबसे हमारी फेवरेट डीशों में से एक है.
दोपहर बाद रोज ४ बजे से ६ बजे तक इन्टरवल रहता था। साइकिल पर एक आदमी आता था, काफ़ी सारा फुटकर सामान लेकर, बच्चो की पसंद का, जैसे की ऑरेंज टाफी (कम्पट–चूसने वाली गोलियां), रेवड़ी, आदि। तब फ़ास्ट फ़ूड व् वैफर्स नहीं आते थे।
ऑरेंज टाफी ५ पैसे की होती थी. अगर २५ टाफी का पैकेट खरीदो तो ४ ही पैसे की पड़ती थी, एक पैकेट १ रुपये का। हम रोज कम से कम २ रूपये की टाफी खरीदते थे। टाफी पृथ्वी की तरह बिलकुल गोल गोल, बीचों बीच उभरी हुई लाइन. ५० टाफी रोज चूसने में उस उभरी हुई लाइन की वजह से मँह में तालू में जख्म हो गया था।
मोती महल में बायीं तरफ बहुत अन्दर पीछे की तरफ एक कैन्टीन भी थी। याद नहीं वहाँ क्या मिलता था, लेकिन कभी कभी वहाँ जाते जरूर थे।
सन्डे सन्डे छुट्टी रहती थी. जिसमें लखनऊ शहर में घूमने की अनुमति थी. बहार गेट पर छात्रों को नई साइकिलें बहुत कम किराए पर मिल जाती थी, २५ पैसे प्रति घंटा, यानि कि ४ घंटो का एक रुपया।
छात्रों का झुण्ड का झुण्ड साइकिलों पर निकल पड़ता था। ज्यादातर हजरतगंज जाते थे। शाम को वहाँ एक फेमस चाट वाला खड़ा होता था. उसकी दही उसकी यू.एस.पी थी। मीठी और बहुत अच्छे से फिटी हुई। दूध में चीनी डाल कर दही जमाने का कंसप्ट शायद उसी ने शुरू किया था। उसकी चाट ज़रूर खाते।
पिक्चर भी हर सन्डे देखते, नावल्टी, साहू, गुलाब, आदि पिक्चर हॉलों में। गुलाब पिक्चर हॉल में पिक्चर शुरू होने से पहले कपड़े का परदा उठता था और पिक्चर ख़त्म होने पर गिरता था। मेफ़ेयर थिएटर था, सबसे पॉश, उसमें अंग्रेजी पिक्चरें चलती थी। हम उसमें कभी नहीं गए। उसके बाहर एक कोल्ड ड्रिंक की दुकान थी। उसकी कोल्ड ड्रिंक बहुत चील्लड होती थी. तुलसी पिक्चर हॉल बाद में खुला।
तब हजरतगंज में चौधरी स्वीट हाउस भी बहुत पॅापुलर था. उसके लड्डू बहुत अच्छे थे, नीचे कागज़ का रैपर लगा हुआ.
मसाला डोसा अपने उत्तर भारत में आ चुका था, लेकिन आधिपत्य नहीं हुआ था. हजरतगंज में चाईंनीज रैसटोरेंट रंजना शायद १९७३ के बाद में खुला। वह बंद हो चुका है।
क्रमशः