मैं, आदिवासी महिला राष्ट्रपति (4)
मैं, आदिवासी महिला राष्ट्रपति (4)
समर्थन माँगने के क्रम में मैं उड़ीसा के मुख्यमंत्री जी से भी मिली थी। उन्होंने अपनी पार्टी के समर्थन के लिए आश्वस्त करते हुए कहा था -
आप योग्य व्यक्ति हैं। हमारा समर्थन आपको है। इसलिए नहीं कि आप उड़ीसा की हैं या उड़ीसा में विधायक एवं सरकार में मंत्री भी रहीं हैं। आप योग्य इसलिए हैं कि आप हमारे समाज का एक बड़े हिस्सा, जनजाति का प्रतिनिधित्व करतीं हैं। आप विवादों से परे एवं राष्ट्रनिष्ठ नागरिक भी हैं। आप उस संथाल जनजाति समुदाय से हैं जिसने 1855 में स्वतंत्रता आंदोलन का आगाज किया था।
मुख्यमंत्री जी की बात से मैं ‘1855 के हूल विद्रोह’ के बारे में सोचने लगी थी। मुझे स्मरण आया कि मेरे पिता इस विद्रोह के नेतृत्व करने वाले - सिद्धू, कान्हू, चाँद और भैरव (चार भाइयों) की फ्रेम की हुई तस्वीरें, हमारे घर में लगाए रखते थे। मेरे पिता अपने ‘इष्ट’ देव की तरह ही, इनके लिए भी श्रद्धा रखते थे। मैं चुप ही थी तभी मुख्यमंत्री जी ने कहा -
आपकी पार्टी ने आपको प्रत्याशी बनाकर प्रशंसनीय काम किया है। इस 15 अगस्त को हमें स्वतंत्र हुए 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस अवधि में हमारे समाज के सभी वर्गों के विभिन्न व्यक्तियों ने, राष्ट्र के शीर्ष पद को सुशोभित किया है। अब तक जनजाति समुदाय से कोई व्यक्ति इस पद तक नहीं पहुँचा था। यह कमी आप पूरी कर सकें, इस हेतु हमारी पार्टी का मत आपको मिलेगा।
मैंने हँसकर पूछा - अगर इस चुनाव में विपक्ष का प्रत्याशी भी किसी जनजाति से ही होता तब भी क्या आप मुझे समर्थन देते?
मुख्यमंत्री जी ने कहा - यह सद्बुद्धि विपक्ष ने दिखाई होती तब यह विचारणीय प्रश्न होता किंतु जब ऐसी स्थिति ही नहीं है तब इस पर बात करने का कोई औचित्य नहीं है।
मैंने कृतज्ञता जताते हुए मुख्यमंत्री जी से विदा ली थी।
मुख्यमंत्री जी की बात में वजन था। मैं उस दिन सोच रही थी कि मेरे राष्ट्रपति पद पर पहुँचते ही इतिहास के लिए यह तथ्य हो जाएगा कि भारत का हर व्यक्ति चाहे वह किसी समुदाय का हो, सवर्ण से लेकर दलित किसी भी वर्ग का हो वह राष्ट्र प्रमुख हो सकता था। मैं सोच रही थी कि काश! विपक्ष के अन्य नेता भी मुख्यमंत्री जी के तरह विचार कर पाते तो मैं सर्वसम्मत राष्ट्रपति होती, यह बात मुझे संतुष्ट एवं अधिक प्रसन्न करती।
फिर कुछ और घटनाएं हुईं और मुझे स्थिति अपने पक्ष में सुदृढ़ होती दिखने लगी थी। अब आगे मतदान और परिणाम एक औपचारिकता जैसी हो गई थी। अब मैं सोचने लगी थी कि राष्ट्रपति होकर मुझे किस तरह से दायित्व निभाने होंगे।
मैं सोचती, सर्वसम्मत राष्ट्रपति का बन गया मेरा सपना साकार नहीं होने जा रहा था। फिर भी सर्वसम्मत होने के लिए मेरी अपेक्षा, बिना किसी भेदभाव के सबके समर्थन पाने की थी।
चाहे कोई मुझे चुन रहा था या नहीं चुन रहा था मगर भारत की राष्ट्रपति होकर मैं सबके लिए राष्ट्रपति होने जा रही थी। विश्व में सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने वाली भारत की प्रथम नागरिक बनने जा रही थी। तात्पर्य यह था कि राष्ट्रपति होकर मैं पार्टी विशेष की सदस्या नहीं रह जाने वाली थी। मुझे पार्टी सीमाओं से ऊपर उठ जाना था। मैं तय करने लगी थी कि हृदय में आभार तो उन सभी का मुझे रखना था जो मुझे चुन रहे हैं लेकिन अपनी कार्यशैली में, मुझे पार्टी निरपेक्ष भाव से काम करना था। मैं राष्ट्रपति होने का वास्तविक अर्थ अपनी तरह से खोजने की कोशिश करती रही थी।
एक रात्रि मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे शिव भगवान मुझे इस का अर्थ दिखला रहे थे। मेरे मस्तिष्क पटल पर एक दर्पण तरह की आकृति उभरी थी। जिस के एक बिंदु पर कई कोणों एवं विभिन्न रंग की किरणें आ रहीं थीं। मैं जानती थी कि एक सामान्य दर्पण उससे ऐसी टकराने वाली (आपतित) किरणों को उसी कोण एवं उसी रंग से परावर्तित करता है। मेरे मस्तिष्क पटल पर उभरी दर्पण जैसी आकृति दिखला रही थी कि समस्त कोणों एवं विभिन्न रंगों की किरणें परावर्तित होकर किरणों का एक पुंज होकर सभी रंगो का एक मिश्रित रंग और एक ही कोण में परवर्तित कर रही थी।
मुझे लग रहा था जैसे शिव भगवान राष्ट्रपति होने का अर्थ यह बता रहे थे कि राष्ट्रपति को सभी निर्णय ‘राष्ट्रनिष्ठ के रंग’ में रंग कर देने होते हैं और निर्णय की दिशा एक ही रखनी होती है जिस दिशा में बढ़कर राष्ट्र उन्नति एवं विकास करते हुए अपने नागरिक की समृद्धि एवं सुख का सुनिश्चय करते हैं। मेरे राष्ट्रपति के र्रोप में कार्य, दायित्व एवं अभिप्राय मुझे उस रात स्पष्ट हो गए थे।
18 जुलाई आई थी। मतदान आरंभ हुआ और संध्या काल तक मैं अपने निर्वाचन को लेकर आश्वस्त हो गई थी। उस रात्रि मैं राष्ट्रपति के रूप में अपनी विचारशैली एवं कार्यशैली तय करने के विचारों में खोई रही थी।
मैं सोच रही थी कि 75 वर्ष पूर्व जब भारत स्वतंत्र हुआ तब काल एवं परिस्थिति को देखकर संवैधानिक प्रावधानों में एक ही “भारत” राष्ट्र के नागरिकों के लिए भेदभाव करते हुए अनेक प्रावधान किए गए थे। अब जब दलित एवं वंचित वर्ग से लेकर अन्य सभी वर्गों में से कोई व्यक्ति राष्ट्र के शीर्ष पद पर पहुँच चुका है तब नागरिकों में भेदभाव करने वाले प्रावधान अलग किए जाने चाहिए।
मैं सोच रही थी ये भेदभाव करने वाले हमारे संविधान के प्रावधान एवं कानून के लक्ष्य, विभिन्न सामाजिक वर्गों में भेदभाव कम करने के थे। 75 वर्षों की स्वतंत्रता अवधि में, अब स्थितियाँ बहुत बदल गईं हैं। इन कानून को अब चलाए रखना भेदभाव मिटाने के लक्ष्य को पाने में अब कठिनाई खड़ी करेगा। यही संविधान एवं कानून नए तरह के भेदभाव की रेखा को गहरी कर देगा। जिससे राष्ट्र की उन्नति एवं विकास की गति अपेक्षित परिणाम की दृष्टि से, अपर्याप्त रह जाएगी।
मैं सोच रही थी अब की परिस्थतियों में भेदभाव सामान्य एवं अपराधी के बीच तथा राष्ट्रनिष्ठ एवं राष्ट्रदोही के बीच ही किया जाना चाहिए।
भेदभाव कोई नहीं होने चाहिए मगर सुविधाएं एवं अवसर आर्थिक रूप से कमजोर नागरिकों तक सरल रूप में सुलभ रहने चाहिए। मनुष्य एक है अतः समाज में नारी पुरुषों से हीन दृष्टि से देखे जाने की परंपरा समाप्त होनी चाहिए। उसे (नारी को) हमारी व्यवस्थाओं में पुरुष समान अधिकार एवं अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। अब हमारे समाज में परिवार, नूक्लीअर हो रहे हैं। ऐसे में वृद्ध व्यक्ति की उपेक्षा नहीं हो एवं उनके स्वाभिमान मृत्युपर्यन्त तक बना रहे इस हेतु उन्हें आवश्यक सुविधाएं और आर्थिक सहयोग मिलना चाहिए।
अगली सुबह से मेरी प्रत्याशित विजय को देखते हुए मुझे कॉल करने एवं मिलने वालों की संख्या अत्यंत अधिक बढ़ गई थी। मुझे अकेले में विचार करने का समय नहीं मिला था।
अंततः 21 जुलाई भी आई, रात तक मुझे राष्ट्रपति निर्वाचित घोषित कर दिया गया। पूरे भारत के ग्रामों एवं शहरों में मेरी जीत को उत्सव रूप में हर्ष एवं उल्लास से मनाया जाने लगा था। सोशल साइट्स पर भी देश के असंख्य लोग मेरी फोटो पोस्ट करते हुए मुझे तथा एक दूसरे को बधाई दे रहे थे। मैं अभिभूत हुई थी।
फिर 25 जुलाई भी आई। मैंने राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण की थी। मुझसे मेरे विचार जान कर, मेरे लिए भाषण तैयार किया गया था। मैंने अपने प्रथम संबोधन में इसे पढ़ा था।
मैं जनजाति महिला एवं दूरस्थ ग्राम में जन्मी (तब नन्हीं) बेटी ने, 64 वर्ष के जीवन में एक जनजाति की साधारण नागरिक से प्रथम नागरिक होने की तथा ऊपरवेड़ा छोटे ग्राम से दिल्ली तक की यात्रा तय कर ली थी।
मैं इसके पूर्व राज्यपाल के रूप में काम कर चुकी थी। मुझे इन संवैधानिक पदों की शक्तियां एवं सीमाएं दोनों का ज्ञान था। फिर भी सलाहकारों एवं कानूनविदों की बैठक बुलाकर मैंने अपने लक्ष्य एवं विचार उन्हें बताए थे। मुझे बताया गया था मैं अपने तरफ से किसी बदलाव की पहल नहीं कर सकती थी। राज्यसभा एवं लोकसभा में सरकार द्वारा पारित प्रस्तावों को ही मैं अपने संवैधानिक अधिकार एवं विवेक के प्रयोग से स्वीकार या अस्वीकार कर सकती थी।
यह मैं जानती थी। मैं यह भी जानती थी कि प्रधानमंत्री एवं उनके अनेक मंत्री ‘भारत’ के विकास, समृद्धि, वैश्विक महत्व एवं गौरव के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। उनसे अनौपचारिक चर्चाओं में अपने भी आशय भी बता कर, उस दिशा में कार्य करने को प्रेरित कर सकती थी।
अपनी कहानी के अंत में अब मैं स्पष्ट करना चाहती हूँ कि मैं राष्ट्रपति के रूप में अपने दो आदर्श व्यक्तियों से प्रेरणा लेकर, आगे इस पद को संपूर्ण गरिमा से निभाऊंगी।
इनमें पहले व्यक्ति एक पूर्ववर्ती राष्ट्रपति थे जो राष्ट्रपति भवन से विदा होते समय कुल सात सूटकेस में अपनी मूल आवश्यकताओं का सामान सहित गए थे। दूसरे व्यक्ति वर्तमान प्रधानमंत्री हैं जो अनेक वर्षों से, सरकार चलाते हुए भी अपने या अपने परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के संकीर्ण प्रयास नहीं कर रहे हैं अपितु पूरे भारत को समृद्ध एवं विश्व में विकास के शिखर पर पहुँचाने की दिशा में, दिन रात सूझबूझ एवं अथक परिश्रम कर रहे हैं।
मेरी कहानी को पढ़ने वाले आप मेरी इसमें लिखी बातों की परख तब कीजिएगा जब मैं राष्ट्रपति पद से निवृत्ति लूँगी।
आप तब यह भी परख करना कि एक आदिवासी एवं दूसरों की दृष्टि में कम योग्य साधारण महिला समझी जाने वाली, मैंने राष्ट्रपति के रूप में अपने को विलक्षण सिद्ध किया या नहीं?
आप यह भी परख करना कि मेरे राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण करने के बाद, विदेश में भारतीय लोकतंत्र की सशक्तता स्थापित हुई या नहीं?
आप यह भी परख करना कि इस समय में भारत में मानव अधिकार हनन, एक साधारण नागरिक के किए गए या अपराधी एवं राजद्रोहियों पर नियंत्रण को मानव अधिकार हनन दुष्प्रचारित किया गया?
आप यह भी परखना कि महिला राष्ट्रपति होने पर, नारी सशक्तिकरण (वीमेन एम्पावरमेंट) की दिशा में भारतीय समाज की उपलब्धि कितनी रही?
अपने विचारों एवं संकल्प के बाद मेरा हृदय प्रफुल्लित हुआ। तब राष्ट्रपति भवन के एक कक्ष में मैंने उस रात्रि बाहा नृत्य का रिकार्डेड संगीत बजाया और विश्व की दृष्टि से बचकर, लगभग आधे घंटे तक अपने कदम एवं तन को बाहा नृत्य की मुद्रा में थिरकाया था।
(समाप्त)
