लकीर के फ़क़ीर
लकीर के फ़क़ीर
' मां, आज गंगा स्नान करने चलेंगे।' बहू सुमेधा ने कल्पना के पास आकर कहा।
' गंगा स्नान ...' कल्पना ने चौंकते हुए कहा।
' हाँ माँ, सुमेरु कह रहे हैं आज चलते हैं माँ को गंगा स्नान करवाने ले चलते हैं।'
सुमेधा के जाते ही कल्पना सोचने लगी क्या सुमेरु भूल गया है कि वह कभी गंगा स्नान करने नहीं गई। उसे याद आये वह पल जब वह लगभग आठ नौ वर्ष की थी। माँ के साथ हरिद्वार गंगा स्नान के लिये गई थी। स्त्रियों के लिये वहाँ अलग घाट की व्यवस्था थी। उसने देखा कि घाट के किनारे एक स्त्री कपड़े धो रही है , वहीं एक स्त्री दातुन से दांत साफ कर कुल्ला कर रही है तो वहीं एक स्त्री साबुन लगाकर नहा रही है। उनके शरीर की सारी गंदगी नदी के बहाव की दिशा में जा रही थी।उस समय उसके मन में यही आया कि वह गंदे पानी में स्नान नहीं कर सकती। माँ ने जब उससे स्नान करने के लिये कहा तो उसने अपने मन की बात बता दी। माँ ने उसे समझाया कि गंगा पवित्र नदी है वह लोगों के पाप धो देती है तो यह गंदगी भी उसकी लहरों में मिलकर पवित्र हो जाएगी। उसने माँ की बात को अनसुना कर दिया तथा अपनी बात पर अडिग रही।
विवाह के बाद सास के साथ भी यही बात हुई। उन्होंने उसे घोर नास्तिक करार दिया। पूजा के समय बनाये जाने वाले चरणामृत में भी गंगाजल न डालने की उसकी पेशकश पर सासू माँ इतनी नाराज हुई कि उन्होंने कहा कि हमें पता नहीं था कि इसे धर्म कर्म में इतनी अरुचि है वरना हम विवाह ही नहीं करते। आश्चर्य तो उसे तब हुआ था जब पुत्री सुनंदा के विवाह के पश्चात उसने गंगा स्नान से मना कर दिया और आज उसकी बहू सुमेधा ...वह क्या करे ?
सुमेरु की पेशकश पर उसने कहा, तुम दोनों चले जाओ। मुझे गंगा स्नान नहीं करना है।'
सुमेरु और सुमेधा गंगा स्नान के लिए चले गए किन्तु वह समझ नहीं पा रही थी कि पिछले पचास वर्षों से लोग वास्तविकता को समझ क्यों नहीं पा रहे हैं। लकीर के फकीर बने हुए हैं।