एक ट्रेन कथा
एक ट्रेन कथा
रिजर्वेशन की लिस्ट में अपना नाम चेक करती है धरा की उंगलियां और बेचैन सी थकी हुयी नज़रे।हावड़ा स्टेशन की भीड़ शाम के इस वक़्त कोई नयी बात नहीं है धरा के लिए , लेकिन आज कोई आम दिन नहीं है. आज उसका बीसवां जन्मदिन है.
पिछले एक हफ्ते से ही एक अजब उहा पोह में फंसा है उसका मन. जैसे कुछ दूर कही बुला रहा हो उसको. वैसे तो ऐसा एक महीने से चल रहा है जबसे कुछ लोग उसे देख कर गए हैं, शादी के रिश्ते की बात को लेकर.
एक अनजान से शादी या एक एकाकी सफर? उसने, २-३ बार ये बात निकाली घर में लेकिन कौन सुनता है. सब तो बस उसके सौभाग्य की दुहाई देने में ही व्यस्त हैं.
इतना अच्छा घर, इतना अच्छा लड़का भला और क्या चाहिए? महीने भर से धरा न किसी से बोली है न मिली है. ऑफिस और घर बस. जानती है, उनके बात में कुछ झूठ नहीं। उनकी कोई गलती भी नहीं.
दीदी जब जब ससुराल से आया करती है , ३-४ दिन तक बस बोलती रहती है एकतरफा. वो तो देखती भी नहीं की उसका १ साल का बेटा दूध के लिए रो रहा होता है. धरा की ही जिम्मेदारी है वो भी, जो उसके चेहरे पे हंसी भी ले आती है और आवाज में खनक. तभी तो उसके लिए तरह तरह के गाने गाना और सुलाना उसका रोज़ है. उसके चले जाने से, बड़ा सूना सूना सा लगता है धरा को. लेकिन दीदी की हताश सीहालत उससे कुछ छिपी नहीं है.
पर उसे ये भी नहीं पता की, सही क्या है और गलत क्या? सब तो यही करते हैं. और धरा के पास तो आलरेडी नौकरी है , चिंता कैसी? जहाँ जायेगी इंडिपेंडेंट वीमेन ही रहेगी वो. सभी नाज करते हैं उसपर. इसीलिए वो कुछ बोलती नहीं, सबकी ख़ुशी में ही मेरी ख़ुशी है. है न ?
लेकिन, अंदर अंदर एक अजीब सा बवंडर उठ रहा है जिसकी वजह समझ नहीं आ रही. सबकुछ तो सही है ,नहीं?
" माँ सुनाओ मुझे वो कहानी, जिसमे राजा न हो रानी..." गाते गाते और थपकियाँ देते न जाने कब उसकी आँख लग जाती है.
पास के कमरे में दीदी सोयी है. वैसे तो ये तीनो साथ ही सोया करते थे, पर आज सुबह जीजाजी आये हैं.
कमरे से अचानक कुछ अजीब सी आवाज आती है , कोई चीखा क्या? नहीं , ऐसा लग रहा है किसी का दम घुट रहा हो.
उसकी नींद टूट जाती है और फिर बड़ी देर तक वह बिस्तर पर बैठी रहती है. अँधेरे में ही, लेटने की भी हिम्मत नहीं है वापस उसमे।
भोर होते ही वो बिना कुछ सोचे समझे एक टिकट बुक कर लेती है दिल्ली का.
दिल्ली से कहाँ जायगी पता नहीं , लेकिन फिलहाल दिल्ली ही सबसे ज्यादा दूर लग रहा है कोलकाता से. वहां जाकर देखूंगी और कितने दूर जा सकती हूँ.
किसी तरह बैग लेकर अंदर आती है और सीट पर बैठते ही उसकी नज़रे ठिठक जाती है, एक झुण्ड घुंघराले बालो वाले सर पे जो खिड़की से बाहर झाँक रहा है. बालो का रंग बिलकुल सन के जैसा सुनहरा है. धरा सामने बैठती है तो वो पलटती है और दोनों एक दूसरे को एक पल देखते हैं. उसकी हलकी नीली आँखों से जैसे साफ़ दिख रही होती है, उसकी मासूमियत. वो सर वापस खिड़की की तरफ घूम जाता है, एक स्कार्फ़ से वो अपने बालो को भी लपेट लेती है इसबार।
धरा समझ जाती है वजह, जो भी कम्पार्टमेंट में गुजर रहा होता है एक बार उसकी तरफ देखे बिना नहीं जाता। ..अब ऐसे अकेली लड़की कोलकाता की ट्रेनों में कहाँ दिखती हैं। साफ़ जाहिर है , यहाँ की नहीं है.
ट्रैन निकलती है और अब इस कम्पार्टमेंट में यही दोनों है. साइड का एक बर्थ खाली पड़ा है.
धरा धीरे धीरे प्लेटफार्म को पीछे खिसकता देखती है , किताबो की दूकान। सामने पड़े लिटिल हर्ट्स के पैकेट और टिन की संदूक पर बैठे परिवार. सूती की साड़ी और बड़ी सी बिंदी लगाए माँ, पास में चहलकदमी करता पिता और लिटिल हर्ट्स की जिद लगाए एक छोटी सी बच्ची। कॉमिक्स लेकर पढता उसका भाई और उसके बालो को सवारती उसकी बड़ी बहन, सब धीरे धीरे उसकी नजरो के सामने से खिसकता चला जा रहा है और वो भी उनके साथ. शायद कन्फर्म टिकट नहीं थी और वो जनरल के डब्बे में बैठ नहीं पाये. शायद, अगली ट्रैन में जगह मिल जाए. शायद, क्या जाने। कौन जाने।
इतने में सोने के बालो वाली लड़की धरा से पूछती है,
" डु यू नो , व्हेरे इस रेस्टरूम ?"
धरा कुछ समझ नहीं पाती. अवाक सी देखती है बस.
"बाथरूम"?
धरा इशारा करती है.
"प्लीज वाच माय बैग" कहकर वो उठकर चल देती है. लेकिन एक बटुआ अपने साथ ले जाती है. अनजान लोगो पर इतना भी भरोसा नहीं है इसे. अच्छा है, होता तो फ़िक्र वाली बात थी.
इतने में, एक लड़का दुबला सा, लगभग ५ फ़ीट ८ इंच का कुछ ढूंढता सा उसी बर्थ पे आ बैठता है.
धरा को ये नया हमराह कुछ पसंद नहीं आता, ऊपर से ये सीट तो किसी और की है.
"ये आपकी सीट है? यहाँ कोई और है। .. आप टिकट चेक कर ले जरा."
वो देखता तक नहीं, बस अपना बैक पैक लिए ऊपर जगह ढूंढ रहा है की कहाँ रखे.
"आपने सुना नहीं शायद? यहाँ कोई और है"
इस बार वो पलटता है, और वो तीखी नजरे एक पल को धरा की बोलती बंद कर देती है.
"अच्छा? देखता हूँ..."
इतने में सोने के बाल वाली वापस डब्बे में आती है।
"आई एम केरेन, हियर इस माय टिकट... कैन आई सी योर ?"
धरा को इतनी सी देर में न जाने क्या हमदर्दी हो गयी है सोने के बाल वाली से. आखिर अनजान देश में है और अपना बैग भी तो मेरे भरोसे रख गयी थी. अब ये न जाने क्या बताये इसको. बंगाली तो दिख नहीं रहा ये , न जाने कौन कैसा है.
तीनो सर एक साथ दोनों टिकट को देखते है.
केरेन ओ' राईली और व्योम तलवार।
तो केरेन बनारस जा रही है और ये जनाब दिल्ली तक. उफ़, केरेन के जाने के बाद मुझे अकेले इसके साथ घंटो बैठना पड़ेगा इस डब्बे में. मैं बनारस ही चली जाती इससे अच्छा.
" .. अरे व्योम आपकी तो वो साइड वाली बर्थ है."
"हाँ, शुक्रिया"
धरा आंखे घुमाती है , अब ये आजकल शुक्रिया कौन कहता है.
कौन से इतिहास की किताब से निकला है ये करैक्टर भला , या किसी ग़ज़ल से? न , पक्के से किसी कार्टून की किताब में रहा होगा. सोच कर उसे हंसी आती है और व्योम चुपचाप अपना बैग लेकर कुछ ओझल सा हो जाता है.
धरा बैग से सिद्धार्थ की किताब निकाल कर पढ़ना शुरू करती है, और ट्रैन धीरे धीरे स्पीड लेकर एक स्थगित सी रफ़्तार पकड़ लेती है. कुछ वैसे ही जैसे अनजान पटरियों पर जाने वाले अनजान यात्रियों का साझा सा सफर और आती जाती साँसे और धड़कता हुआ ह्रदय।