वारिस
वारिस
ससुर जी की मृत्यु के बाद उनका कमरा खाली करते समय मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। ना जाने कौन से जमाने का कबाड़ इकट्ठा कर रखा था। पतिदेव ने भी आज तक कभी एक सामान हटाने नहीं दिया था। क्योंकि सासु माँ की असामयिक मृत्यु के बाद मेरे पतिदेव को लगता था कि यह सारी चीजें ही पापाजी के जीने का सहारा हैं। यह झूठ भी नहीं था, मैंने भी अक्सर उन्हें पुराने रेडियो, जो शायद उन्होंने मम्मी जी की फरमाइश पर खरीदा था, को सहलाते हुए देखा था। पुराने एलबम को निहारते देखा था। एल्बम का तो ऐसा था कि मेरे पतिदेव ने उसकी सारी फोटो स्कैन करके डिजिटल फ्रेम में सुरक्षित भी कर दी थी कि पापा जी जब चाहे चला कर देख सकते थे। पर पता नहीं क्यों वह एल्बम हाथ में लेकर बैठे रहते, यादों में खोए।
मेरे पति दो भाई एक बहन है । पापा जी के जाने के बाद सब की एकमात्र राय यही थी कि पापा जी के कपड़े जरूरतमंदों को और सामान सारा निकाल दिया जाए और गैरजरूरी कागजात जला दिए जाएं । दीदी तो उनकी अपनी बेटी है, जब उनको इन सामानों से कोई मोह नहीं है तो हम दोनों तो बहुएं थी। देखा जाए तो हम कितने वीतरागी, वैरागी हो गए हैं। किसी चीज का मोह नहीं करते। दोनों भाई कुछ चीजों को देखकर व्यथित हो रहे थे पर जब जाने वाला चला गया तो सामानों का मोह क्या करना। वैसे कहने की बात नहीं मूल्यवान वस्तुएं, जेवर इत्यादि हमने पहले ही आपस में बाँट लिए थे।
आखिर दोनों भाई बहन यह जिम्मेदारी मुझ पर पर डाल कर अपने-अपने शहरों में और पतिदेव ऑफिस चले गए। अब मुझे ही कमर कस कर कमरे की सफाई करनी थी। मैंने अपनी कामवाली सरला को साथ लगा रखा था। उसे कह भी रखा था कि उसे कुछ लगे तो अपने लिए रख ले। वैसे मैं और वह दोनों ही जानते थे कि कुछ रखने लायक बचा नहीं है। कमरा लगभग साफ (खाली) हो गया था। बस पापा जी की किताबों वाली अलमारी बाकी थी। पापा जी पढ़ने के बहुत शौकीन थे मम्मी भी। उस जमाने के लोगों की तरह उनके पास भी मनोरंजन का दूसरा विकल्प भी नहीं था । उनके पास बहुत अच्छा संकलन था किताबों का । पापा जी बताते भी थे किस तरह उस जमाने में एक रुपये की किताब खरीदने के लिए भी उन्हें दस बार सोचना पड़ता था (पढ़ कर हैरान हो रहे हैं ना। नहीं! सच में सारी किताबों में पुस्तक की कीमत एक रुपए ही छपी हुई थी। बाकी कुछ किताबे पाँच, दस रुपये की भी हैं। ऐसा नहीं कि उनके पास सिर्फ पुरानी किताबों का ही संकलन था। पापाजी के पास नयी किताबों का भी बहुत अच्छा संकलन था। पढ़ने की शौकीन तो मैं भी थी। पहले मैं भी पढ़ती थी। पर अब मोबाइल पर सारी पुस्तके आजकल उपलब्ध है तो अब यह पुस्तकें मेरे लिए रद्दी से अधिक नहीं थी। यह वहीं किताबें थी जिनके लिए पापा जी ने एक रजिस्टर बनाया था। जिसमें वो सारी किताबों का विवरण दर्ज करते थे कि कौन कब लेकर गया और अब तक वापस नहीं की है या की है। देख लो आज वही किताबें लावारिसों की तरह रद्दी में जा रहीं थीं। मुझे थोड़ा दुख हुआ पर मैंने भावनाओं पर काबू किया। आज नहीं तो कल इन पुस्तकों की नियति यही होगी। आज मैं, नहीं तो हमारे जाने के बाद इन्हें रद्दी में ही दिया जाएगा।
मैंने अपनी कामवाली सरला से कहा, "कल रद्दी वाले को बुला लेना यह किताबें भी देकर खत्म करेंगे"।
सरला थोड़ा हिचकिचाते हुए बोली, "भाभी किताबें भी दे दोगी क्या"?
मैंने कहा, "तो रख कर क्या करना है"?
वह बोली, "आप बुरा ना मानो तो पैसे आप मुझसे ले लो पर यह किताबें मुझे दे दो"।
मैंने आश्चर्य से पूछा, "तू किताबों का क्या करेगी"?
वह बोली, "भाभी यह किताबें मैं घर ले जाऊंगी। हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि हम किताबें खरीद कर पढ़ सकें। तो बस्ती में जिसको पढ़ने का शौक होगा वह किताबें मुझसे लेकर जाएगा और पढ़ सकेगा"।
मैंने पूछा,"तेरी बस्ती में कौन पढ़ेगा यह किताबें" ?
वह बोली,"भाभी सभी अनपढ़ निरक्षर नहीं है हमारी बस्ती में। कुछ तकदीर के मारे भी हैं, उनके लिए किताबे बड़ी सहायक होंगी। मैंने सुना है जिनको किताबों को पढ़ने का नशा होता है उनको कोई और नशा करने का नशा नहीं होता। देखूंगी शायद हमारी बस्ती में भी बच्चे, जवान जो खाली समय में कुछ नहीं करते हैं वह भी इन किताबों में डूबकर कुछ तो सुधर सकें"।
मैं सोच रही थी कि कौन ज्यादा शिक्षित है, मैं या सरला ? मेरे लिए इतना शिक्षित होने के बाद भी सोना चांदी ही मूल्यवान थे और उस अशिक्षित के लिए पुस्तकें अनमोल" ।
मैंने कहा, "ठीक है शाम को साहब के आने पर यह सारी किताबें कार से तुम्हारे घर पर पहुँचा दूंगी"।
मैं भी खुश थी, दिल पर रखा एक अनदेखा बोझ हट गया था। शायद पापा जी की आत्मा भी अपनी किताबों की उपयोगिता देख कर खुश हो रही होगी। सरला सही मायने में पापा जी की वारिस थी।
