धुंधली-सी ज़िन्दगी
धुंधली-सी ज़िन्दगी
पल पल बीतती,
मेरी कहानी मैं,
अपनी ही हस्ती में,
सिमटा जा रहा हूँ,
कभी धूप तो कभी,
छांव में बंटा जा रहा हूँ।
धुंधली-सी मंज़िल,
की चाह में,
रोज़ सफर पर,
निकल जाता हूँ।
हर लम्हा उलझनों में,
जिये जा रहा हूँ,
रोज़ एक ही जाम,
पिये जा रहा हूँ।
ख्वाहिशों की उड़ान,
सातवे आसमान तक है,
पर न जाने क्यों,
उनसे दूर जा रहा हूँ।
अक्सर लिख लिया,
करता था कभी कभी,
अब उस कलम से,
दूर होता जा रहा हूँ।
बेबाक थे,
कभी शब्द मेरे,
अब तो खामोशी भी,
दफन किये जा रहा हूँ।
लहरों से मिलने,
की आस लिए,
किनारों को पीछे,
छोड़े जा रहा हूँ।
तेज़ रफ़्तार से,
दौड़ते इस शहर में,
मैं खुद से भी आगे,
चला जा रहा हूँ।