बेटी की पुकार
बेटी की पुकार
माँ की कोख में लड़ी मैं,
अपने अस्तित्व की लड़ाई,
कन्या भ्रूण हत्या से बच कर,
किसी तरह मैं इस दुनिया में आई।
लोगों को था बेटे का आस,
पर टूट गया मन का विश्वास,
हुआ शुरू तिरस्कार यहाँ से,
कोई न आया मेरे पास।
समय बिता बड़ी हुई मैं ,
लड़खड़ाते कदमों पे खड़ी हुई मैं,
जग की कुरीतियों से अनजान ,
बना डाला मैंने सपनों का यान।
माँ से बोली मुझे पढ़ाओ,
मुझे भी तुम काबिल बनाओ,
मैं भी भैया जैसा ही,
तुम्हारा साथ निभाउँगी।
और सामाजिक स्तर पर,
तुम्हारा सिर ऊँचा कर जाऊँगी।
संघर्ष किया वहाँ पर मैंने,
पढ़-लिख कर आगे बढ़ आई।
पर आगे जा कर भी तो,
दहेज़ प्रथा से थी मेरी लड़ाई
दहेज़ प्रथा के नाम पर,
बेटे बेचे जाते हैं।
बेटी दे कर भी जाने क्यूँ ?
लड़की वाले सिर झुकाते है अरे !
सुनो समाज के ठेकेदारों,
इस प्रथा के कारण हमें न मारो।
ये प्रथा ही है
कन्या भ्रूण हत्या का आधार
इस कारण ही होता हमारा तिरस्कार
कुछ भी करके
दहेज़ को भगाओ
जग को कुप्रथा मुक्त बनाओ।