बेतरतीब
बेतरतीब
मुझे पसंद है बेतरतीब चींज़े,
जैसे बागों में बेतरतीब बढ़ी घाँसे,
मेरे कमरे में बिखरी हुयी किताबें,
मेरी आलमारी में इधर उधर रखे कपड़े,
पेन स्टैंड से बाहर झांकता मेरे कलमों का जत्था,
हाँ, पसंद है मुझको बेतरतीब चींजे |
चाहे वो गांवों के कच्चे- पक्के मकां हों,
या जंगलों के बढ़े टेढ़े-मेढ़े पेड़,
शहरों में सड़कों के किनारे,
लगे हुए भीड़ वाले बाजार हों,
या गांवों के पतले -संकरे रास्ते,
हाँ पसंद है मुझको बेतरतीब चींज़े |
वो मेरे बाबा की सिकुड़ी हुयी कमीज़ हो,
या मेरा किनारों पर मुड़ा हुआ कुरता,
माँ का सिलवटों भरा आँचल हो,
या उसकी हवा से उड़तीं हुईं जुल्फें |
हाँ पसंद है मुझको बेतरतीब चींज़े |
क्योंकि मुझे नहीं पसंद है,
मन मर्ज़ी से बहने वाली नदिंयों पर बांध बनाना,
भरे पूरे जंगल को काटकर वहां बस्तियां बनाना,
शहरों में बहुत करीने से सजे बाजार बनाना,
या बहुत योजनाबद्ध तरीके से,
शहर के अपार्टमेंट बनाना |
वो भी इसलिए क्योकि,
एक स्वार्थ होता है सलीके से रखी हुयी चींजो में,
लालच होता है योजना से बने,
बांधो और अपार्टमेंटों में,
एक अलग सा बनावटीपन होता हैं,
इन सलीके से रखीं चीज़ों में,
बस इसीलिए पसंद है मुझको बेतरतीब चींज़े |