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Vinita Rahurikar

Abstract

1.3  

Vinita Rahurikar

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पहले सी नहीं रही

पहले सी नहीं रही

1 min
312


वो बैठना चाहती

सुबह सुबह की नरम धूप में

खुली खिड़की के पास

ताज़ी हवा में

वो रात के अँधेरों की बात करता


वो सुनना चाहती

चिड़ियों का कलरव

भँवरे की गुनगुन

कोयल की कूक का 

 मधुर संगीत

वो जिंदगी के दुखों का राग अलापता


वो चलना चाहती

हवा के साथ

महकना चाहती फूलों के साथ

उड़ना चाहती तितलियों के साथ

झूमना चाहती

हरीभरी पत्तियों के साथ

ये सब उसे अपने साथी से लगते

वो अकेलेपन की त्रासदी सुनाता


वो गाती गीत नदी का

पनघट का

बैलों के गले की

घण्टियों की ताल पर

मन वीणा के सुर पर सजा

वो उदासी के गीत गाता

दर्द का राग अलापता


वो चाहती 

वो भी हँसे, मुस्कुराए 

गाये, गुनगुनाये

जीवन का राग

उसके साथ खुलकर 

जिये जीवन को

वो उलाहना देता कि 

उसे कोई परवाह नहीं है उसके दर्द का 


फिर एक दिन वो चुप हो गई

हँसना भूल गयी

कटने लगी जिंदगी से

खोने लगी अँधेरों में

हो गई उदास

वह अब उस पर

 इलज़ाम लगाता

की बदल गई है वो

पहले सी नहीं रही



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