सपना
सपना
माता- पिता का सपना...
बचपन से देखा,
सबसे अलग, सबसे ऊंचा,
उसमें मुकाम था अपना...
चाहा था जो कुछ पाना,
बढ़ चला
बुन कर ताना-बाना...
चलता ही रहा, बढ़ता ही रहा,
उस राह से मैं अंजाना,
मंज़िल थी बसी आँखों में मेरी,
कुछ सही लगा,
कुछ गलत किया....
लोग हँसे, मज़ाक बना,
दिल दुखा, मन घायल हुआ,
फिर
माँ के सबक को याद किया,
बचपन की वो कहानी,
याद आई पिता की जुबानी...
उसमे माँ ने था बतलाया,
हर राह में होंगे,
काँटों के साये,
नफरत की बाँहे फैला के,
हँसेंगे तुम पर वो कभी,
जब डर जाएंगे,
इन आँखों से सभी
राहों में खो न जाना तुम,
सुख की बाँहों की चाहत में,
काटों में उलझ न जाना तुम,
फूलों की महक की आहट में ...
ध्यान में रख उस बानी को,
साक्षी ले पानी को,
बढ़ चला राह पहचानी....
अब नैतिकता की राह न छोड़ूँगा,
झूठ से नाता तोड़ूँगा,
चाहें काटें चुभ जाए पाँवों में...
शायद जो सोचा,
न पा पाऊंगा,
पर
माता- पिता का सपना,
सच कर जाऊँगा....