भरोसा
भरोसा
ना जाने क्यूँ मुझे तुम पर भरोसा नहीं होता
मुझे हमेशा लगता था कि
ये जो नर्म हरियाली बिछायी है तुम ने
मेरी राहें आसां करने को
वो दर -असल एक मोटी फिसलन भरी हरी काई है
जहाँ पाँव रखूँगा तो जा गिरूँगा ओंधे मुंह
और मेरे ख़्वाब चाकनाचुर हो ज़ायेंगे
जैसे कर दिये थे तुमने पिछली दफ़ा
ना जाने क्यूँ मुझे तुम पर भरोसा नहीं होता
मुझे अक्सर यही लगता है
कि तुम अब भी मुझपर छुप छुप के हँसते हो
और खिलखिलाते हो मेरी सभी नाकामियों पर
मगर तमगे तो तुम्हारे भी किसी ने नहीं देखे
ना जाने किस बात पर इतराते हो
मैं एक दिन संवर कर दिखा ही दूँगा
चल के दिखला दूँगा तुम्हें मैं उन्ही काई भरे रास्तों पर
गिर के संभलूँगा ,संभाल कर आगे बढूँगा
और कहकहे तुम्हारे सन्नाटों मे ड़ूबो दूँगा कहीं
समय सिर्फ तुम्हारी घड़ी से लटका हुआ नहीं है