इंंसान
इंंसान
सुना जाती थी कोयल
अपना राग न्यारा कभी,
सुनता भी था, हँसता भी था
इन्सान ज़िंदा था तभी।
आवाज़ लगाती 'सोनिया'
पंछी परिंदे को कभी,
आता भी था, दाना चुग-चुग
गान सुनाता भी था।
इंसान ज़िंदा था तभी।
चेहरे खिलखिलाया करते थे
दोस्त बनाया करते थे,
छत पे बतियाया करते थे।
अब दोस्त क्या, इंसान क्या,
शोरगुल सा माहौल बना
अंदर भी, बाहर भी
साँसों का खेल चला।
अंदर भी, बाहर भी
घर, मकान बने,
मकान एक कमरे
सी दुकान बने।
खुद की आवाज़,
खुद की पहचान,
गँवा बैठा है तभी
इंसान खोखला है तभी।
है ज़िंदा ना अभी
है ज़िंदा ना अभी।।