कौन हो तुम
कौन हो तुम
जो झाँकता है मेरी रुह के भीतर से
हो कोई मेरे अपने या ख्याली दिवास्वप्न
श्वेत उज्जवल सी आभा लिये
झांकता हो कोई चंद्र जैसे बादलों से
अठखेलियाँ करता,
बंध रहे हो दामन से मेरे
प्रीत की डोर कोई रेशम सी लिये
मेरी कल्पना में रचे बसे रहते हो
करते हो मखमली कविताओं का सृजन
मेरी ऊँगलियों के पोरों से निकलकर
कलम की धार को तेज करते।
नज़रों के नज़रिए में छुपे
रचते हो एक तेजमंडल
रोशन आदित्य की भाँति
मेरे आस-पास ऐसे क्षितिज की धूरी पे,
सूरज करता है अपनी किरणों का
ठहराव जैसे
उठते ही हाथ मेरे दुआओं में मूँदूं आँखें जब
एक फरिश्ते से प्रकट होते हो
बंद आँखों के भीतर
छूना चाहूँ तुम्हें पर छू ना पाऊँ।
बस ह्रदयतल से सिर्फ महसूस करुँ
कब तलक पानी के बुलबुलों से
बनाती रहूँ छवि तेरी
अंतर्मन की आस मेरी कर दो कभी पूरी
आओ रुबरु मिलो कभी
रुह की परत से निकलकर
हो मुकम्मल नैनों की प्यास मेरी।।