जीवन
जीवन
अविरल अश्कों की धारा,
बहती हुई नदी की तरह,
मुझमें बह रही कहीं,
नेत्र कह रहे मुझसे,
तुम अशांत हो !
मन उत्तेजित था जानने को,
कारण अपनी इस अवस्था का,
मन से पूछकर कि -
"क्या है कारण मुझमें इस रिक्तता का"?
मैं निर्वात बैठ गई।
बदलकर स्वर अपना,
मन कहने लगा -
"जीवन का अर्थ रिक्तता में ही पाओगी,
खुद में डूबकर, जान जाओगी !"
मुझे लगा ये मन कितना ज्ञानी है,
बड़ी ही विचित्र इसकी कहानी है,
फिर लगा एक पल,
ये मन ही तो मैं हूँ !
सवाल भी हूँ, जवाब भी मैं हूँ,
रूठकर मन फिर शून्य हो गया !
मन अब मेरा शांत था,
अश्कों को भी आराम था,
फिर ज्ञात हो गया,
अशांत मन में सवाल थे,
शांत मन रिक्त था,
जीवन, मन में लिप्त था।।