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Ratna Pandey

Abstract

5.0  

Ratna Pandey

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नहीं सुरक्षित आज है बचपन

नहीं सुरक्षित आज है बचपन

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नहीं सुरक्षित आज है बचपन,

ख़तरों से अन्जान है बचपन,

खेलता कूदता मस्ती में मदमस्त,

जब घर से बाहर जाता है बचपन,

ख़ुशी से झूम जाता है उसका मन,

किंतु नहीं सुरक्षित आज है बचपन।


नहीं पता उसे दुनिया के वह रंग,

कितने हैं भदरंग,

जो निर्ममता से बेरंग कर देते हैं बचपन

अपनी हवस की ख़ातिर,

जीवन उनका नर्क बना देते हैं,

खिलने से पूर्व ही मुरझा देते हैं बचपन। 


माता पिता की बाँहों में जो झूल रहा,

अ आ इ ई भी नहीं जान पाया जो बचपन,

फंस कर किसी हैवान के जाल में,

तड़प जाता है उसका मन,

भूल जाता है मधुर स्मृति वाला बचपन।


सपनों में भी हैवान नज़र आता है,

स्पर्श यदि कोई कर दे,

तन मन कांप जाता है,

गुमसुम रहता हर दम,

आँखों में ख़ौफ़ नज़र आता है,

नहीं भूल पाता कभी वह काला दिन।


क्या हुआ और क्यों हुआ,

समझ कुछ भी नहीं पाता,

उलझे धागों की गुत्थी को,

सुलझा नहीं वह पाता,

डर की कश्ती में सवार,

हो जाता है बचपन। 


आज अजीब सा डर,

माता पिता के दिलों में बसता है,

बचपन, बचपन की तरह बीत जाये,

यही ख़्याल दिलों में पलता है। 


आज ज़रुरत है अपने बच्चों को बतलाने की,

अच्छा और ख़राब स्पर्श क्या होता है,

यह बात उन्हें समझाने की,

ध्यान रखना होगा उनका हर एक क्षण,

नहीं सुरक्षित आज है बचपन,

ख़तरों से अन्जान है बचपन ।



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