माँ
माँ
मैं भटक-भटककर
तलाशती हूँ थोड़ी धूप थोड़ी छाँव
थोड़ी जमीन खड़े रहने लिए
जो माँ के जाने के बाद
मुझे नहीं मिलती |
दूर-दूर तक नहीं दिखाई पड़ती कोई चिड़िया
जो माँ के श्राद्ध के दूसरे दिन
चूल्हे की राख में बनी थी
सबने कहा था,
माँ चिड़ियाँ बनेंगी अगले जन्म में |
मैं चश्मा संभाली हूँ
बिलकुल माँ की तरह
और खोजती हूँ चिड़िया
किंतु आईने पढ़ते हैं माँ की परछाईं
मेरे चेहरे पर |
माँ कहीं नहीं जाती
बच्चों को छोड़कर
समा जाती हैं उनके भीतर
जैसे मेरे भीतर समा गई हैं
मैं बन रही हूँ
धीरे-धीरे माँ - जैसी
चिड़ियों को खोजते – खोजते |