यादों का झरोखा
यादों का झरोखा
आज फिर उन स्मृतियों की तरफ लौट रही हूँ जिन्हे शायद मैं बहुत पीछे छोड़ आयी थी। विश्वास नहीं हो रहा मेरा सफ़र आज वापस मेरे अतीत की ओर चल पड़ा है,मन में कितनी हिलोरें उठ रहीं हैं आज मैं अपने घर वापस जा रही हूँ जहाँ से मेरा बचपन जुड़ा हुआ था, जहाँ मेरी हजारों यादें जुडी हुई हैं मेरा बचपन मेरे लड़कपन मेरे कितने अहसास जुड़े हैं उस जगह से! इतने सालों बाद आज वापस जा रही हूँ, सब कुछ बदल गया होगा।
मन ही मन सुभाष को धन्यवाद दे रही हूँ, इनकी ही वजह से आज मैंने अपनी माँ के सपनों के आशियाने की जो वापस पा लिया है आज माँ साथ तो नहीं लेकिन उनकी आत्मा ज़रूर खुश होगी। मैं इन्हीं ख्यालों में खोयी थी कि सुभाष ने मुझे टोकते हुए कहा "अंजलि तुम कहाँ खोयी हुई हो, घर जाने कि खुशी में भूल ही गयीं कि हम सबके साथ बैठी हुई हो" कहकर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे मैं थोड़ा झेंप तो गयी थी, लेकिन फिर उनसे बातें करने में व्यस्त हो गयी। असल में पूरे ३० बरस बाद मैं लखनऊ जा रही हूँ कितने बरसों की कानूनी लड़ाई के बाद आज अपना घर मुझे वापस हासिल हुआ है।
माँ लड़ते लड़ते चल बसीं। वो तो शुक्रगुज़ार हूँ ईश्वर की उन्होंने मेरी ज़िंदगी में सुभाष को भेज दिया नहीं तो पता नहीं क्या होता?माँ की ही पसंद तो थे सुभाष! मैं फिर ख्यालों मैं गुम हो गयी सोचते सोचते बस आँख लग गयी थी, अचानक झटका लगा तो मेरी आँख खुल गयी। इतने मैं सुभाष कि आवाज़ आयी,"लो अंजलि हम पहुँच गए "। मैं तो सच मैं ख़ुशी मैं मारे उछल पड़ी थी।
घर मैं कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ था। मैंने गाडी से नीचे कदम रखा ही था कि इस घर मैं बिताया एक एक पल मेरी आँखों के आगे घूमने लगा। मेरी माँ के साथ बिताया हर पल आज ऐसे याद आ रहा था, जैसे कल ही की बात हो। इतने मैं ही गाडी का हॉर्न सुनकर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति आकर मेरे पैर छू कर बोला, " नोना दीदी लाओ बैग मुझे दे दो, मैंने तुरंत चौंकते हुए कहा,"तुम कौन हो, ये नाम तो मेरे माली काका लेकर बुलाते थे"। सुनकर तुरंत वो बोला,"नोना दीदी भूल गयीं मैं आपके माली काका का ही बेटा बाबू हूँ, जिसकी आप खूब पिटाई करवातीं थीं"।
हम सभी उसकी इस बात पर हंसने लगे ओर घर के अंदर कि ओर बढ़ गए। घर में घुसते ही मैं हर तरफ देखने लगी सब कुछ वैसा ही तो था, जैसे माँ ने सँवारा था। हर तरफ घूमने के बाद मेरे मन में आया, चल कर अपने कमरे में ही आराम करती हूँ। सुभाष और बच्चे माँ के कमरे में आराम करने चले गए थे। मैंने बाबू से अपने कमरे की चाबी ली और अपने कमरे की तरफ चल पड़ी। कमरा खोलते ही मेरी आँखें ख़ुशी से चमक उठी थीं।
मेरा हर सामान अपनी जगह पर था और सबसे अच्छी बात आज मैं उसी जगह खड़ी थी, जहाँ मैंने पूरा बचपन बिताया था और वो खिड़की के पास वाले कोने पर नज़र पड़ते ही मेरी आँखें नम हो गयीं थीं, सब कुछ यादों में तब्दील हो चुका था, लेकिन कानो में वही खिलखिलाना, हंसी की गूँज, माँ को मेरा आवाज़ लगा कर बुलाना मुझे न जाने क्यों सुनाई दे रहा था। मेरी माँ की वो कुर्सी आज भी वैसे ही वहीँ रखी थी, मेरी वो किताबों की अलमारी वहीँ खिड़की के पास रखी थी, ना जाने क्यों माँ के होने का अहसास हो रहा था। कुछ हलकी फुल्की सजावट सुभाष ने हमारे आने से पहले करवा दी थी। इस घर से लगाव मेरा इसलिए भी था क्यूंकि मेरी नानी और माँ के साथ बीती हुई यादें जुडी हुई थीं। माँ पापा के रिश्ते अच्छे नहीं थे तो माँ मुझे लेकर यहीं आ गयी थीं नानी के पास, जब भी मैं पढ़ाई करती थी नानी अक्सर मेरे पास आकर बैठ जाती थी। नानी को किताबें पढ़ने का बहुत शौक था, तो अक्सर वो मुझे किताबें पढ़कर सुनाती रहती थीं माँ ने उनकी आराम कुर्सी को यहीं डाल दिया था,रोज़ नानी से बातें करते सो जाती थी, जब १२ बरस की हुई तो नानी भी नहीं रही। माँ पर पूरी ज़िम्मेदारी आ गयी थी हालाँकि वो कामकाजी थी, तो हमें कोई ख़ास परेशानी नहीं होती थी। बस थोड़ा समय हम दोनों के साथ का, कम हो गया था। स्कूल से आने में बाद में यहीं बैठकर माँ का इंतज़ार करती थी।
माँ के आते ही हम दोनों घंटो यही बैठ कर बातें करते थे। माँ इसी कुर्सी पर बैठ कर मुझे गोदी में बिठाकर सुला देती थी।समय के साथ मेरी कॉलेज की पढ़ाई शुरू हो गयी थी। माँ को भी समय कम मिल पाता था। सुभाष माँ के जूनियर थे।अक्सर उनका आना जाना लगा रहता था, तो माँ भी अपने ऑफिस की जगह यहीँ बैठने लगी थीं। धीरे धीरे मैं और सुभाष भी करीब आ गए थे,सुभाष भी मेरी बहुत मदद करते थे पढ़ाई में।
सच कहूँ तो इस कोने से बड़ा लगाव हो गया था बचपन से लेकर कॉलेज की पढ़ाई पूरी होने तक जाने मैंने कितने सुहाने पल इस कोने में बिताये थे। कहने को तो घर का एक हिस्सा था ये कोना ! लेकिन जो जुड़ाव मेरा इस जगह से था उसे सोचती हूँ तो सारी यादें वापस वहीँ ले जातीं हैं।उस एक कोने में रखी हुई कुर्सी को देखकर लग रहा था जैसे माँ वहीँ बैठी मुझे लेकर झूला रही हैं,आराम कुर्सी पर बैठते ही माँ के होने का अहसास लग रहा था माँ के प्यारे हाथों को महसूस कर रही थी। माँ की गोद जो मिल गयी थी मुझे। मैं आँखें मूंद कर खो गयी थी,कब सो गयी पता ही नहीं लगा।
सुभाष की आवाज़ से मेरी आँख खुली। सुभाष मेरे सर पर हाथ फेर रहे थे। बड़े प्यार से मेरी तरफ देखते हुए बोले, "माँ की याद आ गयी,समझता हूँ तुम्हारे दिल के जज़्बातों को, "अब चलो कुछ खा लो चलकर"। मैंने सुभाष का हाथ पकड़ा और पूछा सुभाष क्या हम यहीँ आकर नहीं रह सकते। अब अपनी बाकी की ज़िन्दगी में यहीं बिताना चाहती हूँ, बच्चों की कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी होने वाली है। फिर तो बच्चे भी बाहर चले जाएंगे सुभाष ने सहमति से सर हिला दिया था। ६ महीने बाद हम सभी यहीं आकर रहने लगे थे।बहुत अच्छा लगता था। बेटा बाहर जाकर नौकरी करने लगा था।
बेटी की शादी हमने कर ही दी थी। अब हम दोनों रह गए थे। उस कमरे को मैंने एक छोटी सी लाइब्रेरी में बदल दिया था। और जितना समय हम दोनों को साथ मिलता हम यही बिताते थे, अपनी यादों को ताज़ा करते रहते थे, इस कोने में यादों का सिलसिला शायद चलता ही रहेगा,आज ७५ बरस की हो चुकी हूँ,अब तो मेरा ज़्यादातर समय यहीं गुज़ारने लगा है, लेकिन ये कोना आज भी माँ का वो सुखद अहसास कराता है, जैसे मैं वही नन्ही सी अंजलि माँ की गोद में झूल रही हूँ।
