अजूबा_ अंतर्द्वंद्व
अजूबा_ अंतर्द्वंद्व
रिश्ते शब्द ज़हन में आते ही हज़ारों भाव उतर आते हैं जिसने जैसा महसूस किया उसका वैसा रिश्ता बना...लेकिन मेरे मन में हमेशा अंतर्द्वंद्व होता है विस्तृत भावों का !
जो पनपते हैं रिश्तों से ही ...तो सोचा एक कहानी भावों के बीच रिश्तों की ही हो जाए आज , इस कहानी में कोई वास्तविक स्थिति का विवरण नहीं मात्र मेरी जिज्ञासु कल्पनाओं से नातेदारी की संस्तुति मात्र है,
तो कहानी के पात्रों में मैंने चंद भावों पर ध्यान केंद्रित किया है मेरी कहानी में मुख्य पात्र पांच मित्र है जिनके नाम अहंकार, विश्वास, धोखा, सब्र और प्रेम थे ! मित्र भी ऐसे की बहुत बनती थी आपस में या यूँ कहें तो एक दूसरे के बिना किसी की अहमियत न हो ऐसा रिश्ता!
तो मेरी कल्पना भी लगी घोड़े दौड़ाने आखिर इतने भिन्न उद्गार और फिर भी घनिष्ठता तो जायज़ था कल्पनाओं का उड़ान लेना , तो ये पांच मित्र रिश्तों के संसार में जिन्न की तरह मानो उड़ते रहते थे...अपने वर्चस्व को तलाशते !
एक दिन सभी मित्र बैठ मानव मस्तिष्क पर तर्क वितर्क करने लगे तो विरोध होना तय था सभी मित्रों की आपस में ठन गयी तो विचार किया गया, "चलो किसी संयुक्त परिवार पर अपना कहर ढाते हैं, फिर देखें कौन महान!"
आखिर "रिश्तों के संसार" में भाव उड़ने लगे…
इस संग्राम के कोपभाजन का शिकार हुआ एक संयुक्त परिवार! जिसके दो भाइयों पर मन्त्र फूँक बैठा अहंकार!
न चाहते हुए भी तल्खी बढ़ने लगी...दो भाई अच्छा क्या कमाने लगे थे...अहंकार सर चढ़कर बोलने लगा !शायद कमाने के फेर में भूल बैठे थे, उनकी तरक्की में बड़े भाई और माता पिता का समर्पण और योगदान! ऊंचे पद के अहंकार ने जैसे अँधा कर दिया था रिश्तों की मान मर्यादा जैसे सब भूल गए थे!
बड़े भाई के लिए वक़्त ख़त्म.. माता पिता पर बात बात पर एहसान थोपना...तरक्की कि नशे में भूलते जा रहे थे, आज जो कुछ भी हैं अपने उन्हीं बूढ़े माता पिता और ज्येष्ठ भ्राता की बदौलत
ख़ैर विधि का विधान...किसी को थोड़े में बहुत मिल जाता हैं, किसी को पूरा ब्रह्मांड भी रीता ही लगता हैं!
इधर हँसते खेलते परिवार को यूँ बिखरता देख...प्रेम, विश्वास, सब्र ने अहंकार से दूरी बढ़ाने की ठान ली...तो धोखे को महसूस हुआ कि एक दूसरे के बिना तो हमारी अहमियत कब किसी को समझ आएगी...उसने तीसरी आँख फेरी ...अपनी मंडली में उठती तल्खी को मिटाने के लिए युक्ति निकाली कि अहंकार जिस भूल में है उसको वो ही दूर कर सकता हैं!
बस फिर क्या था धोखे ने अपना असर जैसे ही डाला...दोनों उड़ते पंछियों के पर मानो क़तर गए...दोनों भाइयों पर वक़्त के साथ मिलते धोखों और कालाबाज़ारी के चलते नुकसान ज़्यादा होने से उधारी बढ़ने लगी परेशानी में उन्होंने फिर बड़े भाई का रुख किया...छोटे भाइयों का अहंकार टूटने लगा !
माँ को अपनी सीख पर भरोसा था...तो पिता को विश्वास पर और ज्येष्ठ भ्राता के असीम प्रेम ने आखिर राह भटके हुए भाइयों को फिर से एकजुट कर दिया और अंततः इन मित्रों को फिर आपस में मिला दिया क्योंकि रिश्तों में शायद हर भाव महसूस ना हो तो वर्चस्व किसी का नहीं…
बस रिश्तों में भ्रम की स्थिति और एक अजूबा अंतर्द्वंद्व पैदा होता रहता है शायद ज़रूरी है तो अच्छे बुरे की समझ की...मन के भाव स्पष्ट रखने की और सही दिशा में सोच की उम्मीद है !
भावों के इस प्रकरण को आप ज़रूर सराहेंगे
