Krishna Khatri

Inspirational Tragedy

5.0  

Krishna Khatri

Inspirational Tragedy

याद है तुम्हें

याद है तुम्हें

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याद है तुम्हें। आज तुम्हेंं यहाँ  से गए हुए एक साल दो महीने, तीन दिन नौ घंटे हो गए हैं मगर आज भी सब ज्यों का त्यों। मेरे सामने कुछ इस तरह से गुज़र रहा है जैसे अभी-अभी सब घट रहा है। औऱ रात को दस बजे तुम्हारा पार्थिव शरीर घर आया था, एक ठँडे कपाट में तुम्हेंं लिटाय गया, कैसा हो गया था… तुम ऐसे तो न थे… अच्छे भले खूबसूरत जिस्म के मालिक थे। तुम्हारी देहयष्टि औऱ हाइट अच्छी थी मगर आज यह क्या… इस तरह  से बदरंग, बदशक्ल व फूला-फूला सा लग रहा था कि मन औऱ भी दुखी हो रहा था। तुम्हारे इस तरह जाने का गम तो था ही मगर तुम्हारा यह विरूपित रूप दिल को छलनी किए दे रहा था, आँखें लगातार बह रही थी, चाह कर भी खुद सँभाल नहीं पा रही थी औऱ सोच भी रही थी। अब क्या होगा? कैसे होगा? क्या तुम्हारे बिना रह पाऊँगी? तुम्हारी तो मुझे आदत हो गई थी। प्रेम से नोक-झोंक, लड़ाई-झगड़े, सब का सिरा तुम्हारी तरफ ही जाता था औऱ  तुम्हीं से उलझ कर रह जाता। मेरी इसी उधेड़बुन के चलते-चलते तुम पूरी तरह से इस दुनिया से नाता तोड़  चुके थे। मगर मैं हूँ कि अब भी तुम्हेंं बाँधे बैठी हूँ औऱ तुम्हीं से ही उलझ कर रह गई हूँ। आज भी वही सब कुछ औऱ वही उधेड़बुन व उलझन। तुम्हेंं तो पता ही है आज चार बार तुम्हारे होने का एहसास हुआ। एक बार ऐसा लगा जैसे किसी ने तकिया खिसकाया हो फिर लगभग एक घंटे बाद  जैसे मेरे पाँव को हिलाया औऱ फिर एक बार ऐसा लगा जैसे बिस्तर पर तुम अभी-अभी आकार बैठे औऱ फिर जैसे चलने की पदचाप। इस तरह यह सब जान कर, समझ कर तुम्हारा एहसास बड़ी शिद्दत से हुआ। एक औऱ… मैं दवा ले रही थी तब भी जैसे किसी ने मुझे धक्का दिया हो तब भी लगा जैसे तुम्हीं हो, मैंने कहा भी। ऐसा क्यों कर रहे हो? धक्का क्यों? बैठ जाओ ना ठीक से… उसके बाद कुछ नहीं पर मन उद्वेलित औऱ बेचैन हो गया। अभी भी ऐसा ही लग रहा है इसलिए तो तुमसे बात कर रही हूँ। लिख रही हूँ बाकी का तुम खुद पढ़ लेना।

पर कब?

कब क्या… कभी भी… आज कल पढ़ने में तुम्हेंं आलस आता था ना… कितना… कितना आलस… पेपर को खोल कर मुश्किल से दो मिनट देखते औऱ फिर उसी पेपर से मुहँ ढक कर सो जाते थे फिर तो खर्राटें शुरू… बड़े मज़े से… है ना!

हाँ यार पर तू तो जब, तब मेरे पीछे ही पड़ जाती है… अरे! कभी तो मान जाया कर।

अच्छा जी इइइइ औऱ खुद क्या करते हो?

मैं वही करता हूँ जो तू कहती है।

अरे वाह! क्या जोक मारा है… इस तरह जाने के लिए मैंने कहा था!

पगली, यही सब तो किसी के हाथ में नहीं… इसका तो हर सिरा ऊपर वाले के हाथ में है।

मुझे कुछ जानना है तुमसे!

क्या? बोलो।

कहते है ना इस दुनिया से जाने के बाद इन्सान पुनः जन्म लेता है। इस तरह नए शरीर में वापस आता है  तो फिर अब तक तुम्हारे होने का आभास क्यों होता है? अब कल रात की ही बात है… लगभग साढ़े ग्यारह के आस -पास की! मैं जस्ट लेटी ही थी लाइट बंद थी मगर टी.वी चल रहा था। ऐसे में लगा जैसे सामने से गुज़रता हुआ बिस्तर पर आ कर कोई बैठा हो लेकिन देखा तो कोई नहीं था। तब मैंने तुमसे कहा था, इस तरह लुकाछुपी क्यों खेल रहे हो? अब दिख भी जाओ एक बार औऱ यह सुन कर जैसे तुम मुस्कराये। सच में तब मुझे भी हँसी आ गई। जाने क्यों?  यार, ये क्या है, कैसा तिलिस्म है जो इस तरह का जाल बुन रहा है मेरे इर्द गिर्द! सच में तुम मेरे आस-पास रहते हो या मेरा भ्रम है जो बार-बार तुम्हारा आभास कराता है। लेकिन मुझे ऐसा भी नहीं लगता। सच में तुम बड़ी शिद्दत से मेरे आस-पास महसूस होते हो। यह जो आज बार-बार हुआ। करीब एक महीने बाद महसूस हुआ। क्या रोज़ ही ऐसा होता है नहीं ना! फिर? हाँ, तुम्हारा एहसास हर पल रहता है मगर तुम्हारे होने का आभास तो इस तरह कभी-कभी ही तो होता है। काश रोज़ होता, लेकिन इस तरह तुम्हारा होना परेशान करता है क्योंकि तुम दिखते नहीं तो उलझन होती है, अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूँ?

करना क्या है? जो होता है होने दो… इसी बहाने मिल लिया करेंगे!

पर मुझे तुम्हेंं देखने की इच्छा बड़ी तीव्रता से होती है।  

हाँ, ज़रूर होती होगी… यह तो स्वभाविक है।

अब ये दार्शनिक बातें छोड़ो असली मुद्दे पर आओ।

अब मुद्दा तो यही है कि जैसे है वैसे ही चलने दो… कारण औऱ कुछ तो अपने हाथ में नहीं है तुम तो समझदार हो फिर भी बच्चों जैसी बातें करती हो!

पता नहीं क्यों पर तुम्हारे साथ खुद को बच्चा ही महसूस करती हूँ।

चल बातें न बना, तू तो मेरी माँ बनी रहती है।

हाँ, यह तो है तुम्हारी बीमारी में तो तुम्हेंं बच्चे की तरह ही सँभाला है तभी तो जब बिस्तर वगैरह खराब हो जाते तो गुस्सा भी करती थी… जैसे बच्चे को डाँटते वैसे ही तुम्हेंं भी डाँट लेती थी। तब तुम कितने भोलेपन औऱ मासूमियतपने से कहते थे "अरे कसुआ गुस्से क्यों होती है?" सच में आज भी वो सब  याद आता है। मेरी तो दिनचर्या में शामिल था। अब तो एकदम खाली-खाली औऱ फ्री सी हो गई हूँ औऱ तुम्हारी कमी बड़ी शिद्दत से खलती है। तिरपन साल कम नही होते हैं यार! ज़िन्दगी का बहुत बड़ा हिस्सा होता है! सत्तर-अस्सी साल की ज़िन्दगी औऱ उसमें भी कुछ साल तो बचपन में खेलते-फुदकते गुज़र जाते हैं। फिर किशोरावस्था की तो बात ही मत पूछो, जाने क्या-क्या सपने मचलने लगते हैं। उसी खुनकी औऱ मस्ती में इन्सान डूबा रहता है। फिर समय बचा ही कितना! सिर्फ आठ दस साल। तो ज़िन्दगी का अस्सी प्रतिशत हिस्सा तो तुम्हारे साथ कभी प्यार से कभी तकरार से तो कभी  झूमती सी मस्ती में गुज़र गया, पता ही नहीं चला।कब जवानी आई, कब बुढ़ापे ने कदम रखा, यह सब बस होता गया औऱ मैं इन सबसे अनजान ही रही। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूँ? कैसे रहूँ?

अरे यार, तभी तो तुमसे दूर जाकर भी जा नहीं पाया हूँ। इसी लिए तो तुम्हारे इर्द-गिर्द घूमता रहता हूँ। मुझे भी यह सब कहाँ अच्छा लगता है। चलो, यूँ ही सही। याद है, तुमने एक सवाल किया था "क्या मेरा पुनर्जन्म  हुआ कि नहीं?"

नहीं, अब तक तो नहीं, बस तुम्हारे ही इर्द-गिर्द घूम रहा हूँ। चलो, तुम भी आ जाओ फिर साथ साथ वापस आएंगे।

क्या ऐसा हो सकता है? सँभव है?

पता नहीं पर तमन्ना तो यही है।

तो कभी न कभी तो ज़रूर पूरी होगी। खैर! यार, तुम छोड़ो इन सब बातों को… क्यों अपना दिमाग खपाती हो? चल अब सो जा, रात बहुत हो रही है, रात के तीन बज रहे हैं!

अरे! तुम्हेंं तो टाइम का भी पता है।

हाँ तो, मुझे तुम्हारे आस पास का सब दिख रहा है ना!

ओह हाँ, यह तो मुझे ख्याल ही नहीं रहा। भूल जाती हूँ ना कि तुम इस दुनिया में नहीं हो! अब हकीकत तो यही है कि तुम नहीं हो फिर भी हो वो भी बड़ी शिद्दत से।

                                               


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