मन है कि ,,,,,,, !

मन है कि ,,,,,,, !

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 मुझे इस शहर में आए हुए बीस साल हो गए हैं मगर मेरा मन आज भी रम रहा है गांव की उन गलियों में जहां मेरा बचपन बीता ,,,,,, जहां मैं अपनी सहेलियों के संग खेला करती थी - लंगड़ी , आंख-मिचौली , लुकाछुपी , सतोलिया और पकड़ा-पकड़ी ,,,,,, आज भी खेला करती हूं वही सब खेल मगर रुला देते हैं मुझे वो सारे खेल और उथल-पुथल मचा देते हैं मेरे मन की दुनिया में ! समझ में नहीं आता क्या करूं ? बहुत कोशिश करती हूं अपनी इस वर्तमान शहर की जिन्दगी के साथ तालमेल बैठाने की लेकिन मन है कि बिलकुल ही नहीं मानता और घड़ी-घड़ी जा बसता है गांव की उन गलियों में ! तब बार-बार यही लगता है कि काश ,,,,,,, फिर जा पाती ! वही खेल , खेल पाती ,,,,,,,,,,,,, क्या सच में कभी ऐसा होगा ? 

खैर जो भी हो , जिन्दगी कितनी भी साधन-संपन्न बन जाए , बहुत कुछ हासिल कर ले लेकिन गांव की गलियों में बसा मेरा मन शहर की इस आपाधापी में रम नहीं पाता है वो तो गांव में ही रमता है ,,,,,, लेकिन अब गांव भी तो नहीं रहे !


   


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