मूंछें

मूंछें

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ठाकुर बलवंतसिंह और बनिया गोपाल दोनों में अक्सर ठनी रहती ठाकुर साहब को अपनी राजपूती आन-बान और शान पर बहुत गुरूर था ! उनको इतना था कि मजाल है जो उनके सामने कोई अपनी मूंछों पर ताव देदे । एक दिन की बात थी ठाकुर साहब सामने से आ रहे थे उधर ही गोपाल खड़ा था बेख्याली में मूंछों पर उसका हाथ चला गया ! ठाकुर साहब को अपनी तौहीन लगी बहुत गुस्सा आया उसे बहुत डांटा तो वो बोला - ठाकरां मैं इसी तू-तू मैं-मैं कोनी करूं आपको भी शोभा ना देवे हमारे पूर्वजों ने युद्ध करके रजवाड़े जीते थे !

तुम्हारे नहीं हम राजपूतों के ! अब युद्ध का एलान करते हैं आज से दसवें दिन हम युद्ध के मैदान में मिलेंगे !

ठीक है ठाकुर साहब हम भी पीछे नहीं रहेंगे ! दोनों तरफ से तैयारियां शुरू ! ठाकुर साहब अपने गुमास्तों को ऑर्डर देते - पांच सौ हथियार खरीद लो जब गोपाल को पता चलता वो उससे दुगने हथियारों का आॅर्डर देता जब ठाकुर साहब को ये पता चलता तो वे और उससे दुगना ऑर्डर देते इस तरह दस दिनों में खूब होड़ा-होड़ी चलती रही ठाकुर साहब ने अपनी चल-अचल सब पूंजी लगा ली ! ठीक दसवें दिन निर्धारित समय पर अपनी सेना के साथ मैदान में पहुंचे देखा वहां तो कोई नहीं था अभी कुछ सोच ही रहे थे कि सामने से गोपाल नाई के साथ आ रहा था !

अरे कहां है तेरी सेना ?

ठाकरां किंकी सेना किसो झगड़ों ! आ मूंछां की खातर ? लो सा आ कर दी नीची ! ले रे भाया नाइड़ा काट दे म्हारी मूंछां हंअ आ मूंछां की खातर ठाकरां से बैर ? 

बेचारे ठाकुर साहब !


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