Shubhra Varshney

Inspirational

4.2  

Shubhra Varshney

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वर्दी वाली शेरनी जीवा

वर्दी वाली शेरनी जीवा

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आकाश में काले काले बादलों की घुमड की तरह आरती के मन के भाव भी गंभीर घोष कर रहे थे। मन का द्वंद भी गर्जना के बाद हुई वर्षा की भांति उसकी आंखों के रास्ते बहने लगा।

" सारी परीक्षाएं उसे ही देनी है ,उसकी व्यथा का कहां अंत है? यह सब सोचते-सोचते उसकी नजर सोती हुई किशोरावस्था में पहुँच चुकी जीवा पर गई ,जिसके आंसुओं के निशान उसके गाल पर अभी भी थे।

यह निशान आरती के हृदय को भेदकर उसका कष्ट और भी बढ़ा रहे थे।

बीते कल की बात सोच कर आरती का दिल फटा जा रहा था। जब सास ने जीवा की पढ़ाई रोक देने का फरमान सुना दिया था।

अपने चारों बच्चों में से जीवा में उसकी जान बसती थी। और जीवा थी कि मां के अलावा घर में सभी के प्यार को तरसती थी।

बड़ी दोनों बहनें दादा की आंखों का तारा थीं और उसके साथ ही जन्में भाई में दादी के प्राण बसते थे। एक उसे ही अवांछित अपशगुनी मानकर उसके प्यार पाने को झुलसते मन को स्नेह की शीतल छांव से दूर रखा जाता।

कम उम्र में पति खोकर वैधव्य झेल रही आरती पूर्ण रूप से सास-ससुर पर आश्रित होने के कारण उनका विरोध करने में असमर्थ थी और इसी कारण जीवा को अकसर दुत्कारे जाने पर वह उसे अपनी छाती से लगाकर ममता के कुछ पल देने की कोशिश किया करती।

उसे आज भी याद था कि उस छोटे कस्बे में रसूख रखने वाले एकमात्र बड़े दुकानदार उसके ससुर दीनदयाल के एकलौते पुत्र राजवीर की निगाह जब कुएं से पानी भरती उस पर पड़ी थी तो माता पिता के विकट विरोध के बाद भी अति गरीब घर की पर रूप की धनी वह ब्याह कर राजवीर के साथ अब उसके घर की शोभा बढ़ा रही थी।

साल भर पीछे जब उसने एक पुत्री को जन्म दिया तो ससुर का गुस्सा तो जाता रहा पर सास सावित्री देवी की नजरों में उसका रूप और कार्यकुशलता उसकी मायके की गरीबी के सामने फीके पड़े रहते जिसका खामियाजा आरती को दिन भर काम करते हुए चुकाना पड़ता।

स्वस्थ शरीर और उत्तम स्वास्थ्य के राजवीर को शीघ्र ही सेना में भर्ती मिल गई ।सेना में जाना राजवीर का बचपन का सपना था ।

एक बार फिर माता-पिता के घोर विरोध के बावजूद राजवीर देश सेवा को चला गया।

छ: महीने पीछे राजवीर जब घर लौटते तो जहां राजवीर के देश के प्रति जज्बे से पिता को गदगद हो उठते वहीं दूसरी ओर सावित्री देवी पोते का मुंह देखने का राग अलापती।

दूजी साल दूजी जन्मी पोती उनका दुःख दुगुना कर गई । जहां एक तरफ वह आरती को पहले ही नकार चुकीं थीं ऐसे में उसकी प्रतिमूर्ति उसकी दोनों पुत्रियां सावित्री देवी को कहां सुहाती ।

हां दादा दीनदयाल ने जरूर उनमें ही अपनी दुनिया ढूंढ ली थीं। 'मेरी छोरियां क्या छोरे से कम है' वाले भाव लिए वह दिनभर लड़कियों को अपने कंधे पर टांगे रहते।

दो बेटियों के हो जाने पर जब राजवीर ने यह कहा कि, "हमें और बच्चा नहीं चाहिए" तो जैसे प्रलय आ गई। इकलौते पुत्र के पुत्र ना हो यह भला कहां सहन सावित्री देवी को। जो वह भूख हड़ताल पर बैठी तो अन्न का निवाला तभी लिया जब राजवीर ने उनकी इच्छा पर अपनी मुहर लगाई।

अब आरती फिर बच्चे को जन्म को जन्म देने वाली थी। चौथे महीने में ही उसके तेजी से बढ़ते पेट को देखकर सास को खटका लगा था। कस्बे के ही सरकारी डॉक्टरनी ने खुशखबरी दी के बच्चे इस बार बच्चे जुड़वां थे।

दोहरी जिम्मेदारी से घबराई आरती के व्याकुल मन को शांति दी फोन पर राजवीर के प्यार भरे वचनों ने," अरे तू क्यों घबराती है। मैं हूं ना तेरे साथ। देश के साथ घर की भी जिम्मेदारी पूरे मन से निभाऊंगा। और देख लेना मेरी संतान भी देश की सेवा में समर्पित रहेगी"

पर कहां निभा पाए थे राजवीर अपने वचनों को।

आरती आज भी उस दिन को नहीं भूली थी जब राजवीर का फोन आया था। वे उन दिनों सुचेतगढ़ जम्मू के सांबा सेक्टर पर तैनात थे। आरती को बता रहे थे कि यहां कुछ आतंकवादी गतिविधि दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थीं और वह उसमें व्यस्त थे।

 दूसरी तरफ आरती थी कि उन्हें उलाहना दिए जा रही थी कि उसका समय पूरा चल रहा था डिलीवरी कभी भी हो सकती थी ।ऐसे समय में उसे राजवीर का साथ चाहिए ही चाहिए था। 

राजवीर ने कहा कि वह आने की पूरी कोशिश करेंगे ,पर इस समय वह अपने वतन पर मंडराते संकट के बादलों से अपने देश को मुक्ति दिलाना चाहते थे।

आरती को कहां पता था कि वह वार्तालाप उन दोनों का परस्पर किया हुआ अंतिम वार्तालाप साबित होगा।

राजवीर शहीद हुए थे, अपनी कर्तव्यनिष्ठा पर अपने प्राण निछावर करने में जरा भी नहीं चूके थे।माता-पिता का इकलौता पुत्र असमय काल के गाल में समा गया था।

जहां एक तरफ तिरंगे में लिपटे राजवीर भारत माता की जयकारे के नारे के साथ अपने कस्बे पहुंचे उसी दिन अस्पताल में भीषण प्रसव वेदना से गुजर कर आरती ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया। बेहद कमजोर एक बेटी और एक बेटा।

पोते को सीने से लगाए सावित्री देवी जहां उसी शहर ले गई थी उसकी जाती सांसों को रोकने के लिए।

पूरी रात अस्पताल में भर्ती रहकर बड़ी मन्नतो के बाद जन्मा पोता जी गया था। वही घर में पड़ी जन्मी बेटी रोती आरती की गोदी में अपने जीवट से न जाने कैसे जी गई। उसके जिंदा रहने की जीवट के कारण ही बाद में उसका नाम आरती ने जीवा रखा था।

राजकीय सम्मान से राजवीर विदा किए गए। दोनों बड़ी बेटियां जहां दादा से लिपट कर रो रही थी वही सावित्री देवी अपने पोते को सीने से चिपकाए उसके साथ जन्मी नन्ही जान को अपशगुनीं मान रही थी। बार-बार रोते हुए चीख रही थीं ,"खा गई बाप को"

आकाश लालिमा युक्त हो गया, चिड़ियों की चहचहाट ने आरती को वर्तमान में ला दिया। प्रातःकाल होने वाला था उगते सूरज की लालिमा ने उसके अंदर शक्ति का संचार किया। वह जीवा को यूं घुटने नहीं देगी।

राजवीर का सपना था कि उनकी संतान देश के प्रति समर्पित हो।

दोनों बड़ी बेटियां तो कोमलांगी विवाह के सपने देखने लगी थी और बेटा दादी के साथ पुश्तैनी दुकान पर समय बिताता ऐसे में उपेक्षित अपनी जीवा में ही उसे पिता का सपना पूरा करने की संभावनाएं दिखती।

दादी दादा के लाड प्यार से दूर जीवा मां के संग रहती उसका हाथ बंटाती कम सुविधाओं और उपेक्षित हालातों के चलते पत्थर सी कठोर हो गई थी।

रोज रात आरती से सुने पिता के देशभक्ति के कारनामों से जीवा में रोमांच तो उत्पन्न होता पर अभी देश प्रेम के भाव उत्पन्न नहीं हुए थे। ऐसे में आरती का उसे पढ़ा-लिखा कर सेना में भेजने का निर्णय उसे बस यहां से छूटने भर का माध्यम मात्र लगा था। परिवार में सदैव उपेक्षा से देखे जाने वाली जीवा जल्दी से जल्दी यहां से दूर जाना चाहती थी।

12वीं के बाद ही अखबार में निकली सेना भर्ती विज्ञप्ति को पढ़कर जब उसने अपने जिले की सेना भर्ती कार्यालय में अपनी प्रमाण पत्र जमा कराए तो पिता की तरह बलिष्ठ शरीर और स्वस्थ देह की स्वामिनी जीवा को परीक्षा पास करने में देर नहीं लगी।

ट्रेनिंग के लिए उसे घर से जाते देखकर जहां दादी मुंह फेर कर बैठ गई थी। दादा का चेहरा भाव विहीन था और उसकी तीनों भाई बहन उसका उपहास उड़ा रहे थे। बस एक आरती ही थी जो उसे विदा करते हुए बहुत देर तक उसे चिपट कर रोती रही।

आर्मी कैंप में आए हुए जीवा को दो महीने हो गए थे। महिला कैडेट्स की ट्रेनिंग जारी थी। इस कैंप में तैनात सूबेदार कड़ा था। अनुशासन का पक्का। चाहे महिला कैडेट्स का मन हो या ना हो उसे तो सुबह 5:00 बजे मैदान के 30 चक्कर लगवाने ही लगवाने थे। उसके इस रवैए के चलते एक महीने में ही ट्रेनिंग को आई कैडेट्स की संख्या आधी रह गई थी।

शुरू से ही बेहद मेहनत करने वाली जीवा को यहां पर कोई विशेष परेशानी नहीं महसूस हुई। कठोर से कठोर अभ्यास भी उसे अपने दादा दादी की उपेक्षित नजरों से ज्यादा सरल लगता। चाहे बात अनुशासन की हो या फिर मैदान में कठोर अभ्यास की निरपेक्ष भाव से वह अपने काम से काम रखती ।

जहां और लड़कियां ट्रेनिंग से समय चोरी मोबाइल में घुसीं रहतीं और फैशन की बातें करती वहीं जीवा इन सब से दूर एकेडमी के नियमों का कड़ाई से पालन कर रही थी।

ट्रेनिंग पूरी होने के बाद जब उसने एकेडमी के द्वारा दी गई वर्दी को पहनकर स्वयं को आईने में निहारा तो उसे एकबारगी लगा पीछे खड़ा उसका परिवार उसे शाबाशी दे रहा था पर अपने हालातों का स्मरण करते ही उसका मन बुझ गया। यहां से ट्रेनिंग के बाद महिला कॉन्स्टेबल के रूप में उसकी तैनाती तय थी।

जब उसने फोन पर यह खबर आरती को सुनाई तो वह अपने आंसू नहीं रोक पाईं । मोबाइल पर उसको वर्दी में देखकर आरती को उसमें राजवीर का अक्स दिखाई दे रहा था।

सीमा पर आतंकवादी गतिविधि बढ़ती जा रही थी। कुछ नए महिला कॉन्स्टेबल को वहां जाना तय सा लग रहा था जहां और सभी जाने से बचने के लिए अपनी ड्यूटी कटवाने के प्रयास कर रही थीं वही जीवा उदासीन बैठी जाने की योजना बना रही थी। देशभक्ति की भावना से नहीं लेकिन उसे दूर जाना था बहुत दूर।

एकेडमी के सूबेदार को उसकी इच्छा जानकर बहुत खुशी हुई जीवा को तुरंत पोस्टिंग मिल गई। विधि का विधान कहे या संयोग उसकी पोस्टिंग सुचेतगढ़ जम्मू के सांबा सेक्टर में ही हुई थी।

जब वहां पहुंच कर उसने फोन पर आरती को यह खबर सुनाई तो एकबारगी आरती का कलेजा मुंह को आ गया। आंखों के सामने अंधेरा आने से वह गिरते-गिरते बची।

उसके होंठ यही बुदबुदा रहे थे, "बेटा तू जिंदा लौट कर आना"

उसकी यह दशा देखकर जब घरवालों ने उससे पूछा तब उससे जीवा की तैनाती के बारे में जानकारी पहली बार उसका परिवार जीवा के विषय में सोच रहा था।

सांबा सेक्टर में आतंकवादी गतिविधि चरम पर थीं। जीवा के वहां पहुंचने की दूसरी रोज एक दहलाने वाली खबर आई। यहां के स्थानीय सरकारी स्कूल पर कब्जा करके आतंकवादियों ने वहां तैनात दो शिक्षिकाओं और बच्चों को बंधक बना लिया था।

टीवी पर चलती ब्रेकिंग न्यूज़ में जब जीवा ने एक आतंकवादी को अपना राष्ट्रीय ध्वज स्कूल की छत से उतार कर नीचे फेंकते हुए देखा तो उसे जीवन में पहली बार देश के प्रति अपने सोए प्रेम का पता चला। इस घटना को देखकर उसका खून खौल गया था। रोते बिलखते बच्चे उसकी क्रोधाग्नि में आहुति का काम कर रहे थे।

इस घटना से निपटने के लिए जब योजना के तहत टीम तैयार की गई तो जीवा ने स्वयं आगे चलने की बात कही। दो दिन पहले ही उसको यहां तैनात जान मेजर अनिरुद्ध ने उसे पहले तो मना करा पर उसके देश प्रेम और और कुछ कर गुजरने के जज्बे को देखकर वह उसे साथ आने से रोक नहीं पाए।

उनके साथ चलने वाली उनकी टीम में अब जीवा भी थी। उधर टीवी पर यह न्यूज़ लगातार चलने से अब जीवा के घर परिवार में भी हलचल मच गई थी। थोड़ी देर में उस छोटे कस्बे को पता चल चुका था कि उनकी कस्बे की एक बेटी इस रेस्क्यू ऑपरेशन में लगी थी।

मेजर अनिरुद्ध अपनी टीम को लेकर निकल चुके थे। जल्द ही वह लोग टारगेट स्कूल तक पहुंच गए। वहां पहुंचते ही उन्होंने टीम को बंट जाने को कहा। जीवा को स्कूल के पीछे से जाने का आदेश मिला था।

झाड़ियों में पेट के बल सरकती जीवा तैनाती के बाद मिली अपनी राइफल को पीठ पर बांध धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी।

बारिश हो जाने से दलदली मिट्टी में आगे खिसकने में बहुत कठिनाई हो रही थी उसके साथ गए एक अन्य सिपाही कि उसकी तरह थोड़ी देर में ही उसकी सांस फूलने लगी। वह सिपाही रुक रुक कर रेंग रहा था। पर जोश में भरी जीवा बिना रुके रेंगती रही। धीरे-धीरे वह स्कूल के पिछले गेट तक पहुंच चुकी थी। वहां पर एक आतंकवादी पहरा दे रहा था।

जीवा अब उस आतंकवादी को अपने कब्जे में लेने का प्लान बना रही थी। अब तक उसका पीछे वाला साथी सैनिक भी आ गया था।जीवा ने आंखों से ही उस सैनिक को आगे बढ़कर एकदम से उस आतंकवादी पर कूद जाने का इशारा किया।

चीते की तरह जीवा उस आतंकवादी पर कूद गई । वह आतंकवादी कुछ सोच भी पाता उससे पहले उसने अपने कमर से छुरी निकालकर उसका गला रेत दिया।

उस आतंकवादी से ak-47 लेकर अब जीवा आगे बढ़ रही थी। चुपके चुपके वह और उसका साथी सिपाही स्कूल की खिड़की तक पहुंच चुके थे। खिड़की से झांक कर देखने पर पता चला चार और आतंकवादी थे जो बच्चों को बंधक बनाए हुए थे।

उधर मेजर अनिरुद्ध भी स्कूल के मेन गेट तक पहुंच चुके थे। स्कूल को घिरता देख कर अब चारों आतंकवादी का पूरा ध्यान मेन गेट की तरफ था। एक साथी को वहीं छोड़कर तीनों आतंकवादी अब बाहर निकल चुके थे।

अब जीवा धड़धड़ाती हुई अंदर प्रवेश कर चुकी थी। अंदर रुके आतंकवादी को एके-47 से निशाना बनाती वह खुद भी उसकी गोली का शिकार हो गई। उसके पैर में दो गोलियां लगी थीं ।

असहनीय दर्द को किसी तरह से सहन करती वह अब पिछले रास्ते से सभी बच्चों और शिक्षिकाओं को साथी सिपाही की मदद से बाहर निकाल रही थी।

धीरे-धीरे स्कूल खाली हो गया। बंधक बनाए गए सभी 50 बच्चे और दोनों शिक्षिकाएं सुरक्षित बाहर जा चुकी थीं।

उधर तीनों आतंकवादी भी मेजर की टीम के निशाना बन चुके थे। दो मारे गए थे और एक को जिंदा पकड़ लिया गया था।

बाहर तक आते-आते अब जीवा बेहोश हो गिर पड़ी थी। उसे तुरंत आर्मी अस्पताल ले जाया गया।

दोपहर बाद सभी ब्रेकिंग न्यूज़ में जीवा छाई हुई थी। किस प्रकार एक लड़की ने अपने जीवट और अदम्य साहस से इस मिशन को कामयाब बनवा दिया था यह सबके सामने था।

एक हफ्ते जीव अस्पताल में रही। पैर में गोली लगने से उसका काफी रक्त बह चुका था।

कुछ दिनों को के आराम हेतु उसको एक माह की छुट्टी पर घर भेज दिया गया।

आप जब वह अपनी वर्दी में कस्बे में बस से उतरी तो पूरा जनसैलाब उसके स्वागत को आया हुआ था जिसकी अगुवाई उसकी दादी कर रही थी पूजा की थाली लिए। अब वह  अपशगुनी अवांछित नहीं उनकी वर्दी वाली बेटी थी उनकी शेरनी जीवा।


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