Indu Jhunjhunwala

Horror

4.1  

Indu Jhunjhunwala

Horror

वो एक रात

वो एक रात

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आज भी याद है, वो डरावनी रात, जंगल के एक ओर उगा हुआ पूरा चाँद और पहाड़ के शिखर पर मुहँ बाए खड़ा सियार, हुँआ- हुँआ करता-सा, जैसे पुकार रहा हो अपने बिछुड़े साथी को, या आगाह कर रहा हो आनेवाले खतरे से सभी को, पता नहीं,

 70 बसंत पार कर चुका हूँ जीवन के।

पच्चीसवाँ साल, शरारतों का, बदमाशियों का और निडरता साबित करने का।

ट्रेन पटरी से कब उतरी, मुझे भी पता नहीं चला, रात के दो बजे थे, पूरी बोगी सिर्फ धर्राटों की आवाज से गूँज रही थी और बाहर ट्रेन की झुकझुक,

मैं एक पल भी पलक नहीं झपक सका, जिन आँखों में दर्द बसा हो वहाँ नींद कब आती थी।

अचानक, जोर का धक्का, शोर सुनकर खुल गई सबकी आँखें, आस-पास के लोग भी उठ बैठे, एक अनजाना डर ।

बाहर झाँककर देखने की नाकामयाब कोशिश।

तभी बगल की बोगी से कुछ लोग आए, बताया, ट्रेन पटरी से उतर चुकी है। घना जंगल है। सुबह होने तक कोई सहायता नहीं मिल सकती।

सभी परेशान हो उठे। मुझे समझ नहीं आ रहा क्या करूँ?

मेरा दोस्त समीर अन्तिम साँसे ले रहा है, बचपन से अब तक साथ-साथ जीए हम दोनों।

वो दो साल पहले गाँव चला आया, अपनी पढ़ाई पूरी करके, माँ-बाप की खेती में हाथ बँटाने।

दो दिन पहले ही पता चला, वो जीवन की अन्तिम साँसें ले रहा है, मिलना चाहता है मुझसे।

सुनकर धक्का लगा, अचानक क्या हुआ होगा, अच्छा-खासा लम्बा चौड़ा गबरू जवान था मेरा दोस्त , जिन्दादिल इन्सान।

मेरा एक ही तो अजीज दोस्त था, अब वो भी,

 सुबह तक पहुँचना बहुत जरूरी था, पता नहीं ,ऐसा क्या था, जो वो मुझे बताना चाहता था मरने के पहले।

कहीं मेरे पहुँचने के पहले ही वो, नहीं मुझे किसी भी हालत में उसके पास पहुँचना होगा।

लोगों से पूछा उस गाँव के बारे में तो पता चला, यहाँ से सिर्फ 15 किलोमीटर दूर है। पर रास्ते में भयानक जंगल है।

डर लगा एक बार,

पर दोस्त के प्यार के आगे सब कुछ भूल कर मैंने अपना एयर बैग कंधे पर उठाया, टार्च जलाया और उतर गया ट्रेन से।

ऊबड-खाबड रास्तों से होता हुआ पगडंडियों पर बढ़ने लगा। जंगल घना था। दूर-दूर तक कोई रोशनी नहीं, हाँ चाँदनी रात थी, इसलिए डर नहीं लग रहा, फिर आर्मी की टेर्निंग भी काम आ रही थी। टार्च बुझा दिया, जाने कब जरूरत पड़ जाए, बैटरी बचाकर रखनी है।

 अचानक दूर पहाड़ पर सियार की हुँआ-हुँआ,

मन में एक सिहरन, अपने दोस्त को याद करता बढ़ता चला में, एक छोटी पिस्तौल और एक चाकू, जो कि मैं हमेशा अपने पास रखता था सुरक्षा के लिए, मुझे एडवेंचर पसन्द जो था।

सूखी लकड़ी के करीब 3 फिट का टुकड़ा पैर से टकराया, मैंने उसे उठा लिया, चलता चला गया, ।

पता नहीं कितना किलोमीटर तय किया होगा, करीब दो घंटे होने को आए, तभी कोई चीज मेरे पैर में लिपटी, जान गया साँप होगा, रूककर बिना हिले अपनी छड़ी नुमा लकड़ी में जल्दी से उसे लपेटा और दूर फेंकने के उपक्रम में अचानक जो दिखा, ,

एक लम्बा ,घना साया मेरी ओर बढ़ता हुआ, आँखों को और खोलकर आस-पास देखने का प्रयास किया तो चाँदनी में नहाया कब्रिस्तान नज़र आया, जिसके एक ओर की पगडंडी पर खड़ा था मैं।

भूत-प्रेत नहीं मानता मैं, फिर भी जाने क्यूँ आवाज घुटने लगी, पसीने से भर गया पूरा बदन, और सिहर उठा मन ,,बहुत जोर देकर दो शब्द बोल पाया, कौन हो, तू ?

दोस्त, डरो मत, मैं समीर।

अरे, पर तुम यहाँ?

हाँ, तुमसे मिलना जरूरी था, मेरे पास वक्त कम है, इसलिए यहाँ आना पड़ा।

मैं कुछ समझा नहीं। तुम तो हास्पिटल में थे ना?

हाँ वही से आया हूँ, अब तुम ज्यादा सवाल मत करो, पहले मेरी बात ध्यान से सुनो।

मेरे गाँव में एक बहुत ही गन्दी प्रथा है, जिसके बारे में मुझे वापस गाँव आने पर पता चला। यहाँ धर्म के ठेकेदार पण्डे-पुजारी गाँव की भोले-भाले सुन्दर कन्याओं के माता-पिता को फुसलाकर उनकी बेटियों को देवताओं की सेवा में समर्पित करने का लालच देते हैं। ये कार्य कन्या पैदा होते ही इतनी कुशलता से आरम्भ कर दिया जाता है कि जब लड़की जवान होती है तो वो स्वयं ही अपने आप को भगवान के सुपुर्द करने तैयार हो जाती है क्योंकि बचपन से उन्हें यही शिक्षा दी जाती है।

किन्तु उसके बाद भगवान के नाम पर मन्दिरों में वासना का गन्दा खेल खेला जाता है। जिनसे बचने का कोई उपाय नहीं होता।

जब ये युवतियाँ बूढ़ी हो जाती हैं तब इन्हें मन्दिर से निकाल बाहर फेंक दिया जाता है भीख माँगने के लिए।

ज्यादातर तो किसी-न-किसी बीमारी का शिकार होकर समय से पूर्व ही मर जाती हैं।

यहाँ पढ़े-लिखे लोगों की संख्या नगण्य है, अतः ये पता नहीं कितने सालों या युगों से चल रहा है।

धर्म का जामा पहनाने के कारण कोई हिम्मत नहीं करता बोलने की, अन्धविश्वास भी बहुत है।

मुझे कुछ महीनों पहले मन्दिर में एक लड़की मिली, डरी हुई बदहवास-सी। उसने एक कागज का टुकड़ा प्रसाद के साथ मेरी हथेली पर रखा और मुड़ गई।

घर आकर मैंने पढ़ा, अपन टूटी-फूटी भाषा में उसने अपनी दर्दनाक कहानी लिखी थी, जिसे पढ़कर मैं अचम्भित रह गया।

एक नाबालिग लड़की, एक ही रात में, तीन बार, तीन पण्डे।

मेरी रूह भीतर तक काँप गई। 

फिर मैंने खोज शुरू की, तब सारी सच्चाई मेरे सामने आ गई। 

धर्मान्धता, स्वर्ग जाने की अभिलाषा और पुण्य कमाने की कथित इच्छा में अपनी ही पुत्रियों को नर्क की आग में झोंक देना, अमानवीयता की पराकाष्ठा,

इस प्रथा की शुरूआत चाहे जिस भी उद्देश्य से हुई हो, आज के इस घिनौने रूप का पर्दाफाश जरूरी है, मैंने यही कोशिश की, पर यह इतना फैला हुआ एक व्यापार बन चुका है, इसकी कीमत मेरी जिन्दगी बन गई और मैं तुम्हारे सामने अब श्मशान में खड़ा हूँ,

तुम शहर में वापस चलो जाओ, गाँव जाने पर हो सकता है मेरा दोस्त समझकर ये लोग तुम्हें भी मार दें।

किन्तु, जो मशाल मैंने जलाई है स्त्री की अस्मिता के लिए, उसे आगे बढ़ाना तुम्हारी जिम्मेदारी है दोस्त, मेरी मौत को जाया मत करना , बस यही चाहता हूँ, वादा करो मुझसे।

मैं हतप्रभ उसकी बातें सुन रहा था, क्या 21वीं सदी में भी ऐसा हो रहा है।

आज मुझे जीवन का एक उद्देश्य मिल गया था, मैंने उससे वादा करते हुए कहा कि दोस्त तुम फिक्र मत करो, मैं तुम्हारी शहादत को नहीं भूलूँगा और इस प्रथा के खिलाफ अपनी आवाज अवश्य बुलंद करूँगा।

पर एक बार तुम्हारे गाँव जाकर तुम्हारे माता-पिता का दर्द अवश्य बाँटना चाहूँगा, तुम भी साथ हो तो अब जल्दी पहुँच जाएंगे।

हूँ,  ठीक है चलो, पर मेरी बात किसी से न कहना ध्यान रहे।

हम दोनों साथ-साथ चलते हुए जल्दी ही गाँव पहुँच गए, करीब साढ़े चार बज गए थे, हॉस्पिटल के गेट पर पहुँचा तो देखा, उसके माता-पिता की धुंधली छवि दिखी, जो जोर-जोर से रो रहे थे, कुछ गाँव के लोग भी इधर -उधर खड़ फुसफुसा रहे थे, मैंने सुना-" उसके पेट में छुरा चार बार भोंका गया था, बचना सम्भव ही नहीं था, पता नहीं किसका इन्तजार था, आखिर रात तीन बजे दम तोड़ दिया।"

मैंने पीछे मुड़कर देखा," उसकी छाया जो मेरे पास थी, अब दूर होती चली गई और अंधेरे में गुम।

कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा? क्या वो मर चुका था, क्या उसकी आत्मा थी श्मशान में, जिसने मुझसे बात की??

ढेर सारे प्रश्न, श्मशान में खड़ा उसका साया,  सत्य बयां करता हुआ!



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